गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 1
शत्रुसेना से व्याप्त आकाश में बाणों का अन्धकार फैल जाने पर शारंगधन्वा श्रीकृष्ण ने अपने शारंग धनुष की टंकार-ध्वनी प्रारम्भ की। उस टंकार से सात लोकों और सात पातालों सहित सारा ब्रह्माण्ड गूंज उठा, दिग्गज विचलित हो उठे, तारे टूटने लगे और सारा भूखण्ड मण्डल कांपने लगा। शत्रुओं का सारा सैन्य मण्डल उसी क्षण बहरा सा हो गया, घोड़े युद्धमण्डल से उछलकर भागने लगे तथा हाथियों ने भी अपना मुंह फेर लिया। जरासंध की सारी सेना उस टंकार से भय विह्वल हो भाग चली और उलटी दिशा में दो कोस जाकर फिर वहाँ आयी। इस प्रकार विद्युत की पीली प्रभा से युक्त एवं कान्तिमान शारंग धनुष की टंकार फैलाकर श्रीहरि ने अपने बाण समूहों की वर्षा से जरासंध की सारी सेना को आच्छादित कर दिया। राजन् ! शारंगधन्वा के बाणों से शत्रुसेना के रथ चुर चुर हो गये, पहिये टूक-टूक होकर गिर पड़े तथा रथी और सारथि भी मारे जाकर भूमि पर सदा के लिये सो गये। गजारोहियों के साथ चलने वाले हाथी उनके बाणों से दो टूक हो गये। सवारों सहित घोडे़ द्वारा गर्दन कट वक्ष:स्थल और मस्तक छिन्न हो जाने से पैदल योद्धा धराशायी हो गये। उनके कवचों की धज्जियां उड़ गयी थी वे निस्संदेह काल के गाल में चले गये। राजन् ! जैसे फूटे हुए बर्तन कोई अधोमुख और कोई उर्ध्वमुख होकर पड़े दिखायी देते हैं, उसी प्रकार जिनके शरीर कट गये थे, वे राजकुमार उस समरांगण में कोई उर्ध्व मुख और कोई अधोमुख होकर पड़े हुए थे। एक ही क्षण में उस युद्धभूमि में सौ कोस लंबी खून की नदी बह चली, जो अत्यन्त दुर्गम थी। हाथी उसमें ग्रहा के समान जान पड़ते थे। ऊँटों और गदहों के धड़ आदि कच्छप के समान प्रतीत होते थे। रथ शिशुमारों का ,केशसवारों का तथा कटी हुई भुजाएं सर्पों का भ्रम उत्पन्न करती थीं। हाथ मछलियां तथा मुकुटों के रत्न, हार एवं कुण्डल कंकड़-पत्थर जान पड़ते थे। अस्त्र-शस्त्र सीप, छत्र, शंक तथा चामन और ध्वजा बालू प्रतीत होते थे। रथ के पहिये भंवर का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे और इस तरह वह शतयोजन विस्तृत नदी वैतरणी के समान भयंकर जान पड़ने लगी। प्रमथ, भैरव, भूत, वेताल और योगिनियां अट्टहास करती हुईं रणभूमि में नाचने लगीं। नृपेश्वर ! वे भूत वेताल आदि खप्पर में ले लेकर निरन्तर रक्त पी रहे थे और भगवान शंकर की मुण्डमाला बनाने के लिये कटे हुए सिरों संग्रह कर रहे थे। सैकड़ों डाकिनियों से घिरी हुई भद्रकाली वहाँ का गरम-गरम रक्त पीती हुई अट्टहास करने लगी। विद्याधरियां, स्वर्गवासिनी गन्धर्वकन्याएं तथा अप्सराएँ क्षत्रिय धर्म में स्थित होकर वीरगति पाने वाले देवरूपधारी वीरों को अपने पति के रूप मे वरण कर रही थीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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