गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 17
यमुनाजी के यूथ में सम्मिलित गोपियाँ बोलीं- कब हमारा भी वैसा ही समय होगा, जैसा आज मथुरा-पुरवासिनी स्त्रियों का देखा जाता है ? व्रजांग्नाओं ! शोक न करो। किसी की कभी सदा जय या पराजय नहीं होती। विधाता के हृदय मे तनिक भी दया नहीं है, जैसे बालक खिलौनों को अलग करता और मिलता है, उसी प्रकार वह विधाता समस्त भूतों को संयुक्त और वियुक्त करता रहता है। जो पहले कुबड़ी थी, वह आज सीधी और समान अंग वाली हो गयी, जो दासी थी, वह कुलीन हो गयी तथा जो कुरूपा थी, वह रूपवती होकर चमक उठी है। अहो ! चार ही दिनों में वह अपनी विजय के नगारे पीटने लगी है। विरजा-यूथ की गोपियों ने कहा- किसी की भी बाँह सदा प्रिय के कंधे पर नहीं रहती, किसी भी वन में सदा वसन्त नहीं होता, कोई भी सदा जवान नहीं रहता, ये देवराज इन्द्र भी सदा राज्य नहीं करते हैं। कोई चार दिनों के लिये भले ही खूब मानकर ले। ललिता-यूथ की गोपियाँ बोलीं- मन्थरा भी कुबड़ी थी, जिसने अयोध्यापुरी में श्रीरामचन्द्रजी के राज्यभिषेक को रोकवाकर उसमें विघ्न उपस्थित कर दिया। वह कुब्जा ही यह मथुरापुरी में आ गयी है। गोपिकाओं ! जो कुब्जा है, वह क्या-क्या नहीं कर सकती ? विशाखा-यूथ की गोपियों ने कहा- जो गौएँ चराने के लिये अनुगामी ग्वाल-बालों के साथ वन में जाते हैं और लौटते समय वंशीनाद के द्वारा नगर-गाँव के लोगों को अपने आगमन का बोध करा देते हैं तथा जो अपनी गति से मतवाले हाथी की चाल का अनुकरण करते है, उन नन्दनन्दन को हम भुला नहीं सकतीं। माया-यूथ की गोपियाँ बोलीं- साँकरी गलियों में हमारा आँचल पकड़कर, हठात हमें अपनी भुजाओं में भरकर और हृदय से लगाकर परस्पर की खींचातानी से हर्ष और भय का अनुभव करने वाले उन श्रीहरि को हम कब अपने घरों में ले जायेगी ? अष्टसखियों ने कहा- उद्धव ! उन सर्वांग सुन्दर नन्दनन्दन को निहारकर हमारे नेत्र अब संसार की ओर नहीं देखते- नहीं देखना चाहते। वे ही नन्द-राजकुमार मथुरापुरी में विराज रहे हैं। शीघ्र बताओ, अब हमारा क्या होगा ? षोडश सखियाँ बोलीं- वन में प्रेमपीड़ा को बढ़ाने वाली बाँसुरी की मधुर तान सुनकर हमारे दोनों कान अब संसारी गीत नहीं सुनना चाहते, वे तो कौओं की 'काँव-काँव' के समान कड़वे लगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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