गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 17
उद्धव बोले- श्रीराधे ! मैं मथुरापुरी लौटकर आपके इस महान विरहजनित दु:ख को उन्हें सुनाउँगा और अपने आँसूओं के जल से उनके चरण परखारूँगा। जैसे भी होगा, श्रीहरि को मथुरापुरी से लेकर पुन: यहाँ आउँगा- यह बात मैं आपके चरणों की शपथ खाकर कहता हूँ। अत: अब आप शोक न करें। श्रीनारदजी कहते है– राजन् ! तदनन्तर प्रसन्न हुई श्रीराधा ने रास-रंगस्थल में चन्द्रमा द्वारा दी गयी दो सुन्दर चन्द्रकान्त मणियाँ श्यामसुन्दर को देने के लिये उद्धव के हाथ में दीं। पूर्वकाल में चन्द्रमा ने जो सहस्त्रदल कमल भेंट किये थे, उन्हें भी प्रसन्न हुई भक्तवत्सला श्रीराधा ने उद्धव को अर्पित किया। हरिप्रिया श्रीराधा ने प्राणवल्लभ के लिये छत्र, दिव्य सिंहासन तथा दो मनोहर चँवर, जो श्रीकृष्ण के संकल्प से प्रकट हुए थे, उद्धव के हाथ में दिये। साथ ही यह वरदान भी दिया कि 'उद्धव' ! तुम ऐश्वर्य ज्ञान से प्रसन्न, समस्त उपदेशक गुरुओं के भी उपदेशक तथा श्रीकृष्ण के साथ रहने वाले होओगे।' श्रीराधा ने उन्हें निर्गुण-भाव से सम्पन्न प्रेम-लक्षणा-भक्ति तथा ज्ञान-विज्ञान वैराग्य भी प्रदान किया। विदेहराज ! श्रीहरि शंखचूड यक्ष से जो उसकी चूडामणि छीन लाये थे, वह सुन्दर चूडामणि चन्द्रानना गोपी ने उद्धव के हाथ में दी। राजन् ! इसी प्रकार अन्य गोपांग्नाओं ने भी महात्मा उद्धव के हाथ में सुन्दर आभूषणों की राशि समर्पित की। नारदजी कहते हैं- उद्धवजी की शुभार्थक वाणी सुनकर जब श्रीराधिकाजी अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं, तब सभामण्डप में स्थित हुए श्रीकृष्ण-सखा उद्धव के पास बैठकर व्रजगोप-वधूटियों ने पृथक-पृथक उनसे पूछा। गोपांग्नाएँ बोलीं- उद्धवजी ! हमें शीघ्र बताइये, जिन-जिनके लिये श्रीहरि ने पत्र लिखा है, उनके लिये कोई अद्भुत संदेश भी कहा है क्या ? आप परावरवेत्ताओं में उत्तम, साक्षात श्रीकृष्ण के सखा, उनके ही समान आकृति वाले और महान हैं (अत: उनकी कही हुई बात हमसे अवश्य कहिये)। उद्धव ने कहा- गोपांग्नाओं ! जैसे तुम लोग देवेश्वर श्रीकृष्ण का निरन्तर स्मरण करती रहती हो, उसी प्रकार वे भी प्रशिक्षण तुम्हारा स्मरण करते हैं। निस्संदेह मेरे सामने ही वे तुम्हें याद करते रहते हैं। मैं श्रीहरि का एकान्त सेवक हूँ। एक दिन तुम लोगों को स्मरण करके नन्दनन्दन श्रीहरि ने मुझे बुलाया और तुमसे कहने के लिये अपने मन का संदेश इस प्रकार कहा। श्रीभगवान बोले- विषयों में आसक्त हुआ मन बन्धन कारक होता है, वही यदि मुझे परमपुरुष आसक्त ओ जाये तो मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला होता है। अत: ज्ञानीजन मन को बन्धन और मोक्ष-दोनों-का कारण बनाते है। अत: मनुष्यों को चाहिए कि वह मन को जीतकर इस पृथ्वी पर असंख्य (आसक्ति शून्य) होकर विचरे। जब विवेकी पुरुष निर्मल अध्यात्म-योग के द्वारा मुझ साक्षात परात्पर ब्रह्मा को सर्वत्र व्यापक जान लेता है, तब वह मन के कषाय (राग या आसक्ति) को त्याग देता है। यद्यपि मेघ सूर्य से ही उत्पन्न हुआ उसका कार्यरूप है, तथापि जब तक वह सूर्य और दर्शक की दृष्टि के बीच में स्थित है, तब तक दृष्टि सूर्य को नहीं देख पाती। (उसी प्रकार जब तक अन्त:करण-आत्मा के बीच में कषायरूप आवरण है, तब तक मुझे परमात्मा का दर्शन नहीं हो पाता।) व्रजांग्नाओं ! मैं स्थूल भाव से दूर हूँ, परंतु तत्वदृष्टि से तुममे और मुझ में कोई दूरी नहीं है। अत: यहाँ के योग को तुम मेरी प्राप्ति का साधन बना लो। सांख्य-भाव से जिस पद की प्राप्ति होती है, अवश्य ही वह योगभाव (योग-साधना या वियोग की अनुभूति) से भी स्वत: प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीमथुरा खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘उद्धव द्वारा श्रीराधा तथा गोपियों को आश्वासन' नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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