गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 15
नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार बातचीत करती हुई व्रज की गोपांग्नाएँ सारथि के मुख को दो अंगुलियों से ठोककर निकट से पूछने लगीं- 'जल्दी बताओ, यह किसका रथ है ?' बेचारा सारथि आर्त-भाव से हक्का-बक्का-सा होकर देखने लगा। इतने में उन्हें उद्धवजी आते दिखायी दिये। उनकी कान्ति मेघ के समान श्याम थी। नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल थे। आकार भी श्रीकृष्ण से मिलता-जुलता था। वे करोडों कामदेवों को मोह लेने वाले जान पड़ते थे। उनके शरीर पर पीताम्बर सुशोभित था। उन्होंने गले में नूतन वैजयन्ती माला धारण कर रखी थी, जिस पर झुंड-के-झुंड भ्रमर टूटे पड़ते थे। उनके हाथ में सहस्त्रदल कमल सुशोभित था। उनहोंने हाथों में बाँसूरी और बेंत की छडी ले रखी थी। उनका वेष बड़ा मनोहर था। करोड़ों बालरवियों की कान्ति से युक्त मुकुट उनके मस्तक को मण्डित कर रहा था। वक्ष:स्थल में कौस्तुभ नामक महामणि प्रकाशमान थी और रत्नमय कुण्डल उनके कपोलमण्डल की कान्ति बढा रहे थे। नरेश्वर ! चाल-ढाल, आकृति, शोभा, शरीर, हास और मधुरस्वर-सभी दृष्टियों से श्रीकृष्ण का सारूप्य धारण करने वाले उन उद्धव को देखकर समस्त गोपियाँ चकित हो गयीं और उन्हें गोविन्द का सखा जानकर उनके सामने आयीं। यह जानकर कि वे भगवान श्रीहरि का संदेश लेकर आये हैं, वे नीतियुक्त सुन्दर वचन बोलकर उनके प्रति आदर दिखाने लगीं तथा संतों के स्वामी गोविन्द की गूढ़ कुशल पूछने के लिये उन उद्धवजी को साथ लेकर वे कदलीवन में गयीं, जहाँ वृषाभानुनन्दिनी श्रीराधा यमुना के तट पर मनोहर निकुंजमन्दिर में भगवान के विरह से आतुर होकर बैठी थीं और उन श्रीहरि के बिना सारे जगत को सर्वथा सूना मानती थीं। जो पहले केलों के पत्तों से और घिसे हुए चन्दन के पंख से शीतल मेघमन्दिर-सा प्रतीत होता था तथा यमुना की चंचल चारू तरंगों की फुहार पड़ने से जहाँ ऐसा प्रतीत होता था कि साक्षात सुधारिकरण चन्द्रमा की सुधाराशि स्वत: गल रही है, ऐसा कदली वन सारा-का-सारा श्रीराधा की वियोगाग्नि के तेज से अत्यन्त झुलस गया था। केवल श्रीकृष्ण के शुभागमन की आशा से श्रीराधा अपने शरीर की रक्षा कर रही थीं। श्रीकृष्ण के सखा उद्धव का आगमन सुनकर श्रीराधा ने अपनी सखियों के द्वारा अन्न, पान और मधुपर्क आदि मांगलिक वस्तुएँ अर्पितकर उनका बड़ा आदर सत्कार किया। उस समय वे बारंबार 'श्रीकृष्ण-कृष्ण' का उच्चारण करती थीं। गोविन्द के वियोग से खिन्न हुई राधा अमावास्या में प्रविष्ट चन्द्रकला की भाँति क्षीण हो रही थीं। उस समय उद्धव ने नतांडी एवं कृशांडी राधा को हाथ जोडकर प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके वे हर्षपूर्वक बाले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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