गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 14
नारदजी कहते हैं– राजन् ! परमेश्वर श्रीहरि का बार-बार स्मरण करके नवनन्दराज तकिये पर सिर रखकर चुप हो गये। उनका अंग-अंग उत्कण्ठा के कारण रोमांचयुक्त और विह्वल हो रहा था। राजन् ! उस समय श्रीकृष्णसखा उद्धव के देखते-देखते श्रीनन्दराज के नेत्र-कमलों से निकलती हुई अश्रुधारा बिस्तर और तकिये सहित शय्या को भिगोकर आँगन में बह चली । मथुरापुरी से उद्धवजी का आना सुनकर सती यशोदा तुरंत दरवाजे के किवाड़ों के पास चली आयीं और अपनी पुत्र की चर्चा सुनने लगीं। उस समय स्नेहवश उनके स्तनों दूध झरने लगा और नेत्र-कमलों आँसूओं की धारा बह चली। फिर वे लाज छोड़कर पुत्र स्नेह से उद्धव के पास चली आयीं और सारा कुशल-मंगल स्वयं पूछने लगीं। नेत्रों से बहती हुई अश्रुधारा को आँचल से पोंछकर, हरि की भावना से विह्वल नन्दजी की उपस्थिति में वे बोलीं । यशोदा ने कहा– उद्धव ! क्या कन्हैया कभी मुझको अथवा अपने बाबा नन्दराज को याद करता है ? इनके भाई सन्नन्द उसे देखने के लिये बहुत उत्सुक रहते हैं, क्या वह इनका भी स्मरण करता है ? इस व्रज में नौ नन्द, नौ उपनन्द और छ: वृषभानु रहते हैं। क्या कन्हैया इन सबको याद करता है ? जिनकी गोदी में बैठकर उसने वन-वन में बालकेलि की थी, जिनके साथ नन्दनन्दन सानन्द गेंद खेला करता था, उन अपने स्नेही गोपों का वह कभी स्वत: स्मरण करता है ? मुझे मेरे जीवन में एक ही यह बेटा मिला था, मेरे बहुत-से पुत्र नहीं है, फिर भी वह एक ही पुत्र मुझ दीन-दु:खी माँ को छोड़कर दूसरी दिशा को चला गया। महामते ! स्नेह करने वालों के लिये नष्ट होना अनिवार्य है, यह कैसी आश्यर्च की बात है। मानद ! बताओ– मैं पुत्र के बिना क्या करूँ, कैसे जीवित रहूँ ? ‘मैया मुझे दही दे, या मुझे ताजा माखन दे’– इस प्रकार मधुर वाणी में बोलकर वह घर में सदा हठ किया करता था। वही कन्हैया अब दोपहर में कैसे भोजन करता होगा ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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