गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 6
नरेश्वर ! ग्वाल-बालों तथा बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण संध्या के समय धनुषशाला से नन्दराज के निकट आ गये, मानो वे अत्यन्त डर गये हों। गोविन्द का वह अद्भुत सुन्दर रूप देखकर मथुरापुरी की वनिताएँ विशेषरूप से मोहित हो गयीं। उनके वस्त्र खिसक गये, गूँथी हुई चोटियाँ ढीली पड़ गयीं, हृदय में प्रेमजनित पीड़ा जाग उठी और वे अपनी सखियों से परस्पर इस प्रकार कहने लगीं। पुरस्त्रियाँ बोलीं– सखियों ! करोड़ों कामदेवों की कान्प्ति धारण किये श्रीहरि बड़ी उतावली के साथ मथुरापुरी में स्वछन्द विचरने लगे हैं और जिन किन्हीं युवतियों ने उन्हें देखा है, उन हम जैसी सभी स्त्रियों के समस्त अंगों में वे अंग बनकर समाविष्ट हो गये हैं। कुछ चतुरा स्त्रियों ने कहा- क्या इस पुरी में एसी क्रूर स्त्रियाँ नहीं हैं, जो अनंगमोहन श्रीकृष्ण के सारे अंगों को घूर-घूरकर देखती हैं ? हम सब उन परमानन्दमय सर्वांगसुन्दर श्रीकृष्ण को भर आँख नहीं निहारती ? सखी ! किसी के किसी एक ही अंग में सौन्दर्य-माधुर्य दिखायी देता है और वहीं हमारे नेत्र पतंग के समान टूट पड़ते है, परंतु जो सर्वांगसुन्दर एवं मनोहर हैं, उन्हें केवल नेत्र से पूर्णतया कैसे देखा जा सकता है ? नन्दनन्दन का अंग-अंग सुन्दर है, उसमें जहाँ-जहाँ भी दृष्टि पड़ती है, वहीं-वहीं परम सुख पाकर वहाँ लौटने का नाम नहीं लेती। वे लावण्य के महासागर हैं। उनमें हमारा चित्त किस तरह लगा है, मानों उसी में डूब गया हो। मिथिलेश्वर ! नगर की जिन स्त्रियों ने दिन में व्रजरानन्दन को देखा, उन्होंने स्वप्न में भी उन्हीं का दर्शन किया। फिर जिन्होंने स्वप्न में भी उन्हीं का दर्शन किया। फिर जिन्होंने रासमण्डल में उनके साथ रासलीला की, वे गोपांग्नाएँ उनके मधुर मनोहर रूप का कैसे निरन्तर स्मरण न करें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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