गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 6
तब उनके दिखाये हुए मार्ग से श्रीकृष्ण धनुष-शाला में प्रवेश किया। वे मथुरावासी समवयस्क पुर-बालकों के साथ मैत्रीभाव की स्थापना भी करते जाते थे। वह धनुष सुनहरे बेल-बूटों से विचित्र था। उसकी लम्बाई सात ताड़ के बराबर थी। वह देखने में इन्द्रधनुष-सा जान पड़ता था। वह इतना अधिक भारी था कि पाँच हजार मनुष्य एक साथ मिलकर ही उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा सकते थे। उसका निर्माण आठ धातुओं से हुआ था। वह कठोर धनुष एक लाख भार के समान भारी था और चतुर्दशी तिथि को पुरवासियों द्वारा पूजित हो यज्ञमण्डल में स्थापित किया गया था। पूर्वकाल में भृगुकुलनन्दन परशुरामजी ने राजा यदु को वह धनुष दिया था। माधव श्रीकृष्ण ने उसे देखा, वह कुंडली मारकर बैठे हुए शेषनाग के समान प्रतीत होता था। लोग मना करते रह गये, किंतु श्रीकृष्ण ने हठपूर्वक उस धनुष को उठा लिया और पुरवासियों के देखते-देखते खेल-खेल में उसके ऊपर प्रत्यंचा चढ़ा दी। राजन् ! फिर श्रीहरि अपने भुजदण्डों से उस धनुष को कान तक खींचा और जैसे हाथी ईख के डंडे को तोड़ डालता है, उसी प्रकार उसको बीच से खण्डित कर दिया। टूटते हुए उस धनुष की टंकार बिजली की गड़गड़ाहट के समान प्रतीत हुई। इससे ‘भू:’ आदि सात लोकों तथा सातों पातालों सहित सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये, तारे टूटने लगे, भूखण्ड-मण्डल काँप उठा, पृथ्वी पर रहने वाले लोगों के कान तत्काल बहरे-से हो गये। वह शब्द दो घड़ी तक कंस के हृदय को विदीर्ण करता रहा। उस धनुष की रक्षा करने वाले आततायी असुर अत्यन्त कुपित होकर उठे और श्रीकृष्ण को पकड़ लेने की इच्छा से परस्पर कहने लगे– ‘बाँध लो इसे।’ उन्हें सशस्त्र आक्रमण करते देख बलराम और श्रीकृष्ण ने धनुष के दोनों टुकडे लेकर उन दुर्मद दैत्यों को बड़े वेग से पीटना आरम्भ किया। धनुष-खण्डों के अत्यन्त प्रबल प्रहार से कितने ही वीर तत्काल मूर्च्छित हो गये, किन्हीं के पाँव टूटे, किन्हीं के नख फूटे और कितनों ही के कंधे एवं बाहुदण्ड खण्डित हो गये। इस प्रकार पाँच हजार दैत्यवीर भूमि पर प्राणशून्य होकर सो गये। समस्त मथुरा-वासियों में हलचल मच गयी। बहुत- से लोग उस घटना को देखने के लिये दौडे़ आये। नगरी में सब ओर कोलाहल होने लगा और वहाँ के लोगों के मन में बड़ा भारी भय समा गया। भोजराज कंस के सभामण्डप का छत्र अकस्मात् टूटकर गिर पड़ा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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