गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 1
तदनन्तर वसुदेव, उनके सहायक देवक तथा अपने बूढे पिता उग्रसेन को भी, जो राज्य लेने के लिये उत्सुक रहता है, मार डालूँगा। यह सब हो जाने के बाद समस्त यादवों को संहार कर डालूँगा, इसमें संशय नहीं है। मन्त्रिण ! ये सब-के-सब देवता हैं जो मनुष्य के रूप में प्रकट हुए हैं। चन्द्रावतीपति बलवान शकुनि मेरा बहुत बड़ा मित्र है। भूतसंतान, हृष्ट, वृक, संकर, कालनाभ, महानाभ तथा हरिमश्रु– ये सब मेरे मित्र हैं और बलपूर्वक मेरे लिये अपने प्राण तक दे सकते हैं। जरासंध तो मेरा श्वसुर ही है औ द्विविद मेरा सखा। बाणासुर और नरकासुर भी मेरे प्रति ही सौहार्द रखते हैं। ये सब लोग इस पृथ्वी को जीतकर, इन्द्र सहित देवताओं को बाँधकर और द्रव्य–राशि के स्वामी बने हुए कुबेर को मेरूपर्वत की दुर्गम कन्दरा में फेंककर सदा तीनों लोकों का राज्य करेंगे, इसमें संशय नहीं है। दानपते ! तुम कवियों (नीतिज्ञ विद्वानों) में शुक्राचार्य के समान हो और बातचीत करने में इस भूतलपर बृहस्पति के तुल्य हो, अत: इस कार्य को तुरंत सम्पन्न करो। अक्रूर बोले – यदुपते ! तुमने मनोरथ का महासागर ही रच डाला है। यदि दैवकी इच्छा होगी तो यह सागर गोष्पद (गाय की खुरी) के समान हो जायगा और यदि दैव अनुकूल न हुआ, तब तो यह अपार महासागर है ही। कंस बोला– बलवान पुरुष दैव का भरोसा छोड़कर कार्य करते हैं और निर्बल दैव का सहारा पकड़े बैठे रहते हैं। कर्मयोगी पुरुष कालस्वरूप श्रीहरि के प्रभाव से सदा निराकुल (शान्त) रहता है। नारद जी कहते हैं– मन्त्रिप्रवर अक्रूर से यों कहकर कंस सभास्थल से उठ गया और कुछ कुपित हो धीरे से अन्त:पुर में चला गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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