गर्ग संहिता
गिरिराज खण्ड : अध्याय 3
फिर वे गोपों से बोले– ‘भैया ! बाबा ! व्रज-वल्लभेश्वरगण ! आप सब लोग सारी सामग्री, सम्पूर्ण धन तथा गोओं के साथ गिरिराज के गर्त में समा जाइये। यही एक ऐसा स्थान है, जहाँ इन्द्र का कोई भय नहीं है’। श्री हरि का यह वचन सुनकर गोधन, कुटुम्ब तथा अन्य समस्त उपकरणों के साथ वे गोवर्धन पर्वत के गड्डे में समा गये। नरेश्वर ! श्रीकृष्ण का अनुमोदन पाकर बलरामजी सहित समस्त सखा ग्वाला-बालों ने पर्वत को रोकने के लिये अपनी-अपनी लाठियों को भी लगा लिया। पर्वत के नीचे जल प्रवाह को आता देख भगवान ने मन-ही-मन सुदर्शन चक्र तथा शेष का स्मरण करके उसके निवारण के लिये आज्ञा प्रदान की। मिथिलेश्वर उस पर्वत के उपर स्थित हो, कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी सुदर्शनचक्र गिरती हुई जल की धाराओं को उसी प्रकार पीने लगा, जैसे अगस्त्यमुनि ने समुद्र को पी लिया था। उस पर्वत के नीचे शेषनाग ने चारों ओर से गोलाकार स्थित हो, उधर आते हुए जल प्रवाह को उसी तरह रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्र को रोके रहती है। गोवर्धनधारी श्रीहरि एक सप्ताह तक सुस्थिर भाव से खड़े रहे और समस्त गोप चकोरों की भाँति श्रीकृष्णचन्द्र की ओर निहारते हुए बैठे रहे। तदनन्तर मतवाले ऐरावत हाथी पर चढ़कर, अपनी सेना साथ ले, रोष से भरे हुए देवराज इन्द्र व्रजमण्डल में आये। उन्होनें दूर से ही नन्दव्रज को नष्ट कर डालने की इच्छा से अपना व्रज चलाने की चेष्टा की। किंतु माधव ने वज्रसहित उनकी भुजा को स्तम्भित कर दिया। फिर तो इन्द्र भयभीत हो गये और जैसे सिंह की चोट खाकर हाथी भागे, उसी प्रकार वे सांवर्तकगणों तथा देवताओं के साथ सहसा भाग चले। नरेश्वर ! उसी समय सूर्योदय हो गया। बादल इधर-उधर छंट गये। हवा का वेग रूक गया और नदियों में बहुत थोड़ा पानी रह गया। पृथ्वी पर पक्ड का नाम भी नहीं था। आकाश निर्मल हो गया। चौपाये और पक्षी सब ओर सुखी हो गये। तब भगवान की आज्ञा पाकर समस्त गोप पर्वत के गर्त से अपना-अपना गोधन लेकर धीर-धीरे बाहर निकले । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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