गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 25
शिव और आसुरि बोले- भूमन ! आपको नमस्कार है। आप दोनों प्रिया-प्रियतम के चरण कमलों की संनिधि में सदा ही वृन्दावन के भीतर हमारा निवास हो। आपके चरण से भिन्न और कोई वर हमें नहीं रूचता है; अत: आप दोनों-श्रीहरि एवं श्रीराधिका को हमारा सादर नमस्कार है। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! तब भगवान ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तभी से शिव और आसुरि मुनि मनोहर वृन्दावन में वंशीवट के समीप रास मण्डल से मण्डित कालिन्दी के निकटवर्ती पुलिन पर निकुंज के पास ही नित्य निवास करने लगे। तदनंतर श्रीकृष्ण ने जहाँ कमल पुष्पों के सौरभयुक्त पराग उड़ रहे थे और भ्रमर मँडरा रहे थे, उस पद्भाकर वन में गोपांगनाओं के साथ रासक्रीड़ा प्रारम्भ की। मिथिलेश्वर ! उस समय श्रीकृष्ण ने छ: महीने की रात बनायी। परंतु उस रासलीला में सम्मिलित हुई गोपियों के लिये वह सुख और आमोद से पूर्ण रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी। राजन! उन सबके मनोरथ पूर्ण हो गये। अरूणोदय की वेला में वे सभी व्रजसुन्दरियाँ झुँड-की-झुँड एक साथ होकर अपने घर को लौटीं। श्रीनन्दनन्दन साक्षात नन्द मन्दिर में चले गये और श्रीवृषभानुनन्दिनी तुरंत ही वृषभानुपुर में जा पहुँची। इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र का यह मनोहर रासोपाख्यान सुनाया गया, जो समस्त पापों का हर लेने वाला, पुण्यप्रद, मनोरथपूरक तथा मंगल का धाम है। साधारण लोगों को यह धर्म, अर्थ और काम प्रदान करता है तथा मुमुक्षुओं को मोक्ष देने वाला है। राजन! यह प्रसंग मैंने तुम्हारे सामने कहा। अब और क्या सुनना चाहते हो ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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