गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 25
रास-मण्डल के निकुंज में कोटि-कोटि चन्द्रमाओं के समान प्रकाशित होने वाली पद्भिनी-नायिका हंसगामिनी श्रीराधा से सुशोभित श्रीकृष्ण विराजमान थे। रास-मण्डल के भीतर स्त्रीरत्नों से घिरे हुए श्यामसुन्दर विग्रह श्रीकृष्ण का लावण्य करोड़ों कामदेवों को लज्जित करने वाला था। हाथ में वंशी और बेंत लिये तथा श्रीअंग पर पीताम्बर धारण किये वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। उनके वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिह्न, कौस्तुभमणि तथा वन माला शोभा दे रही थी। झंकारते हुए नूपुर, पायजेब, करधनी और बाजूबन्द से वे विभूषित थे। हार, कंकण तथा बाल रवि के समान कांतिमान दो कुण्डलों से वे मण्डित थे। करोड़ों चन्द्रमाओं की कांति उनके अगे फीकी जान पड़ती थी। मस्तक पर मोरमुकुटक धारण किये वे नन्दनन्दन मनोरथ दान-दक्ष कटाक्षों द्वारा युवतियों का मन हर लेते थे। राजन आसुरि और शिव-दोनों ने दूर से ही जब श्रीकृष्ण को देखा तो हाथ जोड़ लिये। नृपश्रेष्ठ! समस्त गोपसुन्दरियों के देखते-देखते श्रीकृष्ण-चरणाविन्द में मस्तक झुकाकर, आनन्दविह्वल हुए उन दोनों ने कहा। दोनों बोले-कृष्ण ! महायोगी कृष्ण ! देवाधिदेव जगदीश्वर ! पुण्डरीकाक्ष ! गोविन्द ! गरुडध्वज ! आपको नमस्कार है। जनार्दन ! जगन्नाथ ! पद्भनाभ ! त्रिविक्रम ! दामोदर ! ह्र्षीकेश ! वासुदेव ! आपको नमस्कार है। देव! आप परिपूर्णतम साक्षात भगवान हैं। इन दिनों भूतल का भारी भार हरने और सत्पुरुषों का कल्याण करने के लिये अपने समस्त लोकों को पूर्णतया शून्य करके यहाँ नन्द भवन में प्रकट हुए हैं। वास्तव में तो आप परात्पर परमात्मा ही हैं। अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण-समस्त अवतारसमूहों से संयुक्त हो, आप परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं तथा वृन्दावन में सरस रासमण्डल को भी अलंकृत करते हैं। गोलोकनाथ ! गिरिराजपते ! परमेश्वर ! वृन्दावनाधीश्वर ! नित्य विहार-लीला का विस्तार करने वाले राधावल्लभ ! व्रज सुन्दरियों के मुख से अपना यशोगान सुनने वाले गोविन्द ! गोकुलपते ! सर्वथा आपकी जय हो। शोभाशालिनी निकुंज लताओं के विकास के लिये आप ऋतुराज वसंत हैं। श्रीराधिका के वक्ष और कण्ठ को विभूषित करने वाले रत्नहार हैं। श्रीरास मण्डल के पालक, व्रज-मण्डल के अधीश्वर तथा ब्रह्माण्ड़-मण्डल की भूमि के सरंक्षक हैं।[1] श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! तब श्रीराधा सहित भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मन्द-मन्द मुसकराते हुए मेघ गर्जन की सी गम्भीर वाणी में मुनि से बोले। श्री भगवान ने कहा- तुम दोनों ने साठ हजार वर्षों तक निरपेक्ष भाव से तप किया है, इसी से तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है। जो अकिंचन, शांत तथा सर्वत्र शत्रुभावना से रहित है, वही मेरा सखा है। अत: तुम दोनों अपने मन के अनुसार अभीष्ट वर माँगो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कृष्ण कृष्ण महायोगिन् देवदेव जगत्पते। पुण्डरीकाक्ष गोविन्द गरुडध्वज ते नम:।
जनार्दन जगन्नाथ पद्मनाभ त्रिविक्रम। दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते ।।
अद्यैव देव परिपूर्णतमस्तु साक्षाद् भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय ।
प्राप्तोऽसि नन्दभवने परत:परस्त्वं कृत्यां हि सर्वनिजलोकमशेषशून्यम् ।।
अंशांशकांशककलाभिरुताभिरामं वेशप्रपूर्णनिचयाभिरतीवयुक्त:।
विश्वं विभर्षि रसरासमलंकरोषि वृन्दावनं च परिपूर्णतम: स्वयं त्वम् ।।
गोलोकनाथ गिरिराजपते परेश वृन्दावनेश कृतनित्यविहारलील।
राधापते व्रजवधुजनगीतकीर्ते गोविन्द गोकुलपते किल ते जयोअस्तु ।।
श्रीमन्निकुञ्जलतिकाकुसुमाकरस्त्वं श्रीराधिकाहृदयकण्ठविभूषणस्त्वम् ।
श्रीरासमण्डलपतिर्व्रजमण्डलेशो ब्रह्माण्डमण्डलमहीपरिपालकोऽसि ।।
(गर्ग0 वृन्दावन0 25। 21-26।।
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