गर्ग संहिता
गिरिराजखण्ड : अध्याय 10
ब्राह्मण बोले- सुव्रत ! मैं तो तुम्हारी बात सुनकर आश्चर्य में पड़ गया हूँ। मुझमें तुम्हारा उद्धार करने की शक्ति नहीं है। पाषाण के स्पर्श का क्या फल है, यह भी मैं नहीं जानता, अत: तुम्हीं बताओ। सिद्ध ने कहा- ब्रह्मन ! श्रीमान गिरिराज गोवर्धन पर्वत साक्षात श्रीहरि का रूप है। उसके दर्शन मात्र से मनुष्य को जिस फल की प्राप्ति होती है, विप्रवर ! केदार तीर्थ में पाँच हजार वर्षों तक तपस्या करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल गोवर्धन पर्वत पर तप करने से मनुष्य को क्षण भर में प्राप्त हो जाता है। मलयाचल पर एक भार स्वर्ण का दान करने से जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है, उससे कोटिगुना पुण्य गिरिराज पर एक माशा सुवर्ण का दान करने से ही मिल जाता है। जो मंगल प्रस्थ पर्वत पर सोने की दक्षिणा देता है, वह सैकड़ों पापों से युक्त होने पर भगवान विष्णु का सारूप्य प्राप्त कर लेता है। भगवान के उसी पद को मनुष्य गिरिराज का दर्शन करने मात्र से पा लेता है। गिरिराज के समान पुण्य तीर्थ दूसरा कोई नहीं है। ऋषभ पर्वत, कूटक पर्वत तथा कोलक पर्वत पर सोने से मढ़े सींग वाली एक करोड़ गौओं का जो दान करता है, वह भी ब्राह्मणों का यत्नपूर्वक पूजन करके महान पुण्य का भागी होता है। ब्रह्मन ! उसकी अपेक्षा भी लाखगुना पुण्य गोवर्धन पर्वत की यात्रा करने मात्र से सुलभ होता है। ऋष्यमूक, सह्यगिरि तथा देवगिरि की एवं सम्पूर्ण पृथ्वी की यात्रा करने पर मनुष्य जिस पुण्य फल को पाता है, गिरिराज गोवर्धन की यात्रा करने पर उससे भी कोटिगुना अधिक फल उसे प्राप्त हो जाता है। अत: गिरिराज समान तीर्थ न तो पहले कभी हुआ है और न भविष्य में होगा ही। श्रीशैल पर दस वर्षों तक रहकर वहाँ के विद्याधर कुण्ड में जो प्रतिदिन स्नान करता है, वह पुण्यात्मा मनुष्य सौ यज्ञों के अनुष्ठान का फल पा लेता है, परंतु गोवर्धन पर्वत के पुच्छ कुण्ड में एक दिन स्नान करने वाला मनुष्य कोटियज्ञों के साक्षात अनुष्ठान का पुण्य फल पा लेता हैं, इसमें संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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