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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
27.ज्ञानयोग, कर्मयेाग व भक्तियोग
यहाँ आत्महत्या का तात्पर्य केवल शरीर का अन्त कर देना नहीं है। इतना सुन्दर और सुयोग्य देह प्राप्त करने के पश्चात भी भगवान को प्राप्त नहीं करने वाले ही वास्तव में आत्महत्यारे हैं। आगे भगवान एक और सुन्दर बात बताते हैं कि जब हमें कोई साधन प्राप्त हो जाये, तो उसमें निष्ठा बनाये रखनी चाहिए। जैसे, एक बार भगवन्नाम का जप करने का निश्चय कर लिया तो उसमें निष्ठावान बने रहना चाहिए।
जैसे, आप पूजा करते हैं तो पूजा ही करें। दूसरा कोई यज्ञ-याग करने की आवश्यकता नहीं है। श्रेष्ठ बात तो यही है कि उसमें कोई भूल न हो, परन्तु कभी कोई अपराध हो जाए, पाप हो जाए या प्रमाद हो जाए तो पश्चात्ताप कर लेना चाहिए। और उसी साधना के द्वारा उस पाप को दूर कर लेना चाहिए। दूसरे नये-नये कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रायः देखा जाता है कि साधना में अपराध हो जाने पर, लोग अनेक प्रकार के समाधान बताने लग जाते हैं - यह करो, वह करो आदि। इसमें अपनी साधना छूट जाती है। जैसे, नामजप या पूजा छूट जाती है। और हम दूसरे साधन में लग जाते हैं। ऐसा हम तभी करते हैं जब हमें अपनी साधना पर पूर्ण विश्वास नहीं होता कि वह कुछ करने वाली है। दूसरा कोई अपनी पूर्व की साधना छोड़कर नाम जप करने लग जाता है। और नामजप करने वाला जप छोड़कर कुछ और करने लग जाता है। ऐसा नहीं करना चाहिए।
अपने-अपने अधिकारानुरूप जिसकी जिस साधना में निष्ठा हो गई है, वही उसके लिये गुण कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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