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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
19.बद्ध, मुक्त तथा भक्त के लक्षण
ज्ञानी पुरुष का वर्णन करते हुए भगवान आगे कहते हैं कि वह किसी की निन्दा-स्तुति नहीं करता। न तो वह अच्छा काम करने वाले की अत्यधिक स्तुति करता है और न ही बुरा काम करने वाले की निन्दा। किसी सन्त ने कहा है कि किसी की बहुत ज्यादा स्तुति मत करो, क्योंकि अधिक स्तुति करोगे तो एक दिन निन्दा भी करनी पड़ेगी। आगे कभी वह कोई ऐसा विपरीत काम कर बैठेगा कि तुम्हें उसकी निन्दा करनी पड़ेगी। इतना ही नहीं, ज्यादा किसी की निन्दा भी मत करो क्योंकि बाद में जब वह अच्छा काम करेगा, तो उसकी स्तुति भी करनी पड़ेगी। इस बात को भली प्रकार समझकर, कोई हमारी स्तुति करे या निन्दा करे, उससे अपने मन को प्रभावित होने नहीं देना चाहिए, और न ही उसमें फँसना चाहिए।
प्रभो! अब आप मुझे वह भक्ति बताइये, जिससे युक्त होकर आपके विचार से भक्त उत्तम-श्रेष्ठ भक्त माना जाता है, और साधु पुरुष भी जिसका आदर करते हैं। तब भगवान ने जो कहा उसका सार-संक्षेप इतना ही है कि साधक को सद्गुणों से सम्पन्न तितिक्षु, गंभीर, धैर्यशील, निष्काम, सत्यसार (यानी उसके जीवन का सार सत्य ही हो) कृपालु तथा सबकी सेवा में रत साधु पुरुष का संग करना चाहिए क्योंकि ऐसे साधु पुरुष का व्यवहार ही भक्ति का वास्तविक स्वरूप है। वह बड़ा गंभीर, मृदु व पवित्र स्वभाव वाला होता है। उसे कामनाएँ त्रस्त नहीं करतीं, न ही वह किसी चीज की इच्छा करता है। वह सदैव मुझ पर ही आश्रित रह कर मनन शील बना रहता है। आत्म तत्त्व का चिन्तन करता रहता है। वह किसी कार्य में प्रमाद नहीं करता। सबके प्रति समभाव रखता है और बड़ा करुणशील होता है। उसके साथ रहकर भक्ति को सीख लेना चाहिए, समझ लेना चाहिए। उसके बाद, भक्ति की और अधिक पहचान के लिए सत्संग करना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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