विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
17.उद्धवगीता
भगवान की इन बातों को, तथा उनके आदेश को सुनकर उद्धव जी कहते हैं- भगवन! आपने अभी जो ज्ञान, की संन्यास की बात कही, वह सामान्य लोगों के लिए बहुत ही कठिन है, दुर्लभ है।
जिन लोगों का मन अभी लौकिक या सांसारिक चीजों में ही लगा हुआ है उनके लिए तो यह त्याग, यह संन्यास-ज्ञान सब बड़ा ही दुष्कर है। मैं भी इन्हीं के समान सांसारिक बातों में तथा मैं, मेरा में भ्रमित हो गया हूँ। अतः आप जरा इस प्रकार से समझाकर बताइये जिससे कि मैं भी सरलता पूर्वक इसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर सकूँ, साधना कर सकूँ। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपने मन का निर्माण कर सकूँ। देखो, क्या उद्धव जी को ज्ञान नहीं था? उन्हें ज्ञान तो हुआ था, परन्तु वह पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान था। इसलिए ज्ञान के साथ-साथ उन्हें उस ज्ञान का अभिमान भी हो गया था। परन्तु गोपियों से मिलकर उनका अभिमान निवृत्त हो गया था। तब उनके हृदय में भक्ति का प्रवेश भी हो गया था। जीवन में, सच में ज्ञान तभी होता है जब हृदय में भक्ति आती है। गीता जी में भी यही कहा गया है।
इसीलिए यानी भक्ति भाव की प्राप्ति के लिए भगवान ने उन्हें व्रज में भेजा था। वहाँ जा कर गोपियों से मिलने पर, उनके प्रेम, भक्ति-भाव को देखकर जब उद्धव जी के हृदय में भी भक्ति का संचार हुआ तब जाकर उनका हृदय तत्त्व ज्ञान को ग्रहण करने योग्य बना। अतः अब यहाँ वे भगवान से तत्त्व ज्ञान सम्बन्धी प्रश्न पूछते हैं।
कहते हैं- मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप ही मुझे समझाकर बताइये। भगवान भी बड़े विलक्षण हैं। अर्जुन को उपदेश देते हैं कि ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ अपना उद्धार स्वयं करो, यहाँ उद्धव जी से भी यही कहते हैं कि अपना उद्धार स्वयं करो। देखो, समझदार लोगों को भगवान सदा यही कहते हैं। बोले, ‘प्रायेण’ प्रायः जो लोकतत्त्व विचक्षण लोग हैं वे अपना उद्धार स्वयं करते हैं, वे अपनी बुद्धि को शुद्ध करते हैं और फिर उस शुद्ध बुद्धि से सब प्रकार का ज्ञान अर्जित करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज