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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
6.वेद व्यास जी का असंतोष
वेदव्यासजी, आपने सोचा कि लोग बहुत ज्यादा अधर्म कर रहे हैं, उनको धर्म के मार्ग पर लाने के लिये, एकदम से उनसे कहा जाए कि आप सब कुछ छोड़ दो, तो लोग सुनेंगे नहीं। इसलिये आपने उनको थोड़ी छूट दे दी कि थोड़ा सा इधर-उधर हो जाए तो कोई बात नहीं। यद्यपि हिंसा तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिये, लेकिन यज्ञ में थोड़ी हिंसा हो जाए तो कोई बात नहीं। आपने अच्छी भावना से उनको छूट दी, क्योंकि आदमी एकदम से कोई चीज छोड़ नहीं सकता। लेकिन आदमी का स्वभाव ऐसा है कि जो अपवाद होगा उसको पहले पकड़ता है, और उसी को नियम बना लेता है। ऐसा होता है न? जैसे डायबेटिस हो गया है, फिर भी मिठाई खाने का मन तो बहुत करता है। तब डॉक्टर तो यही चाहेंगे कि बिल्कुल न खाएँ। लेकिन वे जानते हैं कि यह (मरीज) बिल्कुल तो क्या छोड़ेगा, अतः वे कह देते हैं कभी-कभी खा लिया तो चल जाएगा। उनके ‘कभी-कभी’ का मतलब होता है महीने में कभी एक-आध बार। वह कहता है कि डॉक्टर ने कहा है दिन में एक-आध बार खा लिया तो चल जाएगा। आदमी स्वभाव से आसक्त पुरुष है। वह इसी बात को पकड़ लेता है कि डॉक्टर ने मुझे अनुमति दे दी है। दिन में एक बार खा सकता हूँ। तात्पर्य यह है कि छूट दी जाती है उसे हम हमेशा बढ़ा लेते हैं। नारद जी कहते हैं- आपने भी, भले ही लोगों को धर्म मार्ग पर लगाने के लिए ही क्यों न हो, अधर्म की थोड़ी अनुमति दे दी। आपने सद्भाव से ऐसा किया, लेकिन उससे लोगों का स्वभाव, मन बदला नहीं। अतः अब आप भगवान का नाम और उनकी महिमा को प्रकट कीजिए। नारदजी ने पहले फटकार तो दिया लेकिन उनको लगा- अरे! यह तो बड़े पहापुरुष हैं, इनको मैंने ऐसा कह दिया। इसलिए कहते हैं- वेदव्यासजी, आप मुझसे पूछ रहे है, लेकिन मैं जो आपको बता रहा हूँ वह कोई नयी बात नहीं है। आपको सब कुछ ज्ञात ही है। प्रादेशमात्रं भवत: प्रदर्शितम्।।[1] कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि कोई बात मालूम होते हुए भी वहाँ से हमारा ध्यान हट जाता है। इसलिए, तब कोई संकेत भर कर दे तो उताना ही काफी है। तो मैंने कोई उपदेश देने के लिए नहीं, संकेत करने के लिए इतनी बात बता दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.5.20
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