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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
11.षष्ठ प्रश्न-कर्मयोग का स्वरूप
पहले निवृति और फिर निवृति से ज्ञान की प्राप्ति होती है। यद्यपि वेदों में स्थान-स्थान पर वर्णन आता है कि अमुक कर्म करने से तुम्हें अमुक फल मिलेगा या स्वर्ग मिलेगा। फिर स्वर्गादि की प्राप्ति कराने वाले कर्मों का भी वर्णन आता है। तथापि, वास्तव में उसका प्रयोजन स्वर्ग की प्राप्ति कराने में नहीं होता। जिस प्रकार बच्चे को कहते हैं कि तुम पढ़ाई करो, तो तुम्हें सर्कस दिखलाने ले जायेंगे, तो उसमें प्रयोजन सर्कस दिखाना नहीं होता है। यद्यपि सर्कस दिखलाना मुख्य उद्देश्य नहीं होता तथापि वह लड़का तो सर्कस देखने के लिए ही पढ़ाई करने लग जाता है। ‘और यदि उसे सर्कस दिखलाने नहीं ले जाया जाए तो वह स्वयं घर पर ही सर्कस दिखाने लग जाता है।’ पढ़ाई करके जब उसे ज्ञान प्राप्ति में आनन्द मिलने लगता है, तो सर्कस अपने आप छूट जाता है। इसी प्रकार यहाँ भी वेदों में जो कर्मों का विधान पाया जाता है वह हमें कर्म में लगाने के लिए न होकर, कर्म से छुड़ाने के लिए- निवृत्ति की ओर ले जाने के लिए ही होता है। आगे कहते हैं- सेवा शुश्रूषा के द्वारा पहले सद्गुरु का अनुग्रह प्राप्त करें। फिर उनसे सीखकर प्रारम्भ में मूर्तिपूजा करें। उसके बाद अपने समस्त कर्तव्य कर्मों को भी, भगवान की पूजा समझ कर करना चाहिए। एक अद्वितीय भगवान ही सबमें हैं, ऐसा जानकर सबकी सेवा-पूजा करनी चाहिए। कर्तव्य कर्मों को भी यदि ईश्वरभक्ति पूर्वक ईश्वरार्पण भाव से किया जाए, तो एक दिन वे हमें नैष्कर्म्य की ओर ले जाते हैं। यही कर्मयोग का रहस्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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