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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
36.रासलीला
भगवान यमुना जी के किनारे खड़े हैं। उस पूर्णिमा की रात्रि के सौंदर्य को देखकर उनका मन बहुत ही आनन्दित हुआ। भगवान ने बाँसुरी को लेकर अपने मुख पर रखा और जैसे ही उन्होंने उसमें अपना श्वास फूँका तो उसमें से अत्यंत मधुर स्वर निकलने लगा।
वह स्वर ऐसा था कि मन में कामना को उद्दीप्त कर दे। देखो, उसे केवल गोपियों ने ही सुना। ऐसा क्यों? क्योंकि कामदेव के साथ भगवान की शर्त जो लगी थी। भगवान की आयु तब केवल सात साल की थी, यह ध्यान में रखने की बात है। भगवान ने जब वह तान छेड़ी, तब गोपियाँ घर में अपना-अपना उद्यम कर रही थीं, उन्होंने सब कुछ ज्यों-का-त्यों छोड़ दिया। कोई गायों को दुह रही थीं, सो उसे छोड़कर भाग आई। कोई अपने शिशुओं को सुला रही थी, कोई पति की सेवा कर रही थी, कोई पति को भोजन करा रही थी, कोई रात में गोबर से जमीन को पोत रही थी जिससे कि सबेरे जल्दी काम हो सके, जो जैसी थी, वैसी ही दौड़ पड़ी। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या हो रहा है। मानो बन्सी की तान सुनकर वे सब दीवानी हो गईं। वे जा रही है यह उन्हें पता भी नहीं था। सच बात तो यह है कि ‘कृष्णगृहीतमानसाः’, उनको यह भी होश नहीं था कि हम हाथ के काम छोड़कर चली जा रही हैं, जैसे कोई उनको खींच रहा हो। किसी-किसी गोप ने अपनी स्त्री को जबरदस्ती रोक रखा जाने नहीं दिया, मानो उसका कोई पूर्व पाप उदित हो गया हो। तो उन गोपियों के मन में ऐसी विरह वेदना हुई कि उस अत्यन्त विरहाग्नि में उनके सब पाप जल गये। उन्होंने श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए अपनी देह को छोड़ दिया और दिव्य देह धारण करके भगवान के पास पहुँच गयीं। गोपी माने गो-इन्द्रियों के द्वारा जो भगवद् रस का पान करने वाली है वह। वे सारी गोपियाँ दौड़ती-भागती हुई भगवान के पास पहुँच जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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