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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
35.रासलीला की प्रस्तावना
दूसरी बात- थोड़ा विचार करके देखना चाहिए कि इस कथा को कौन सुना रहा है? किसे सुना रहा है? यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है। शुकदेव जी, जो विरक्तों के शिरोमणि हैं, ब्रह्म भाव में डूबे हुए हैं, साक्षात ब्रह्मस्वरूप हैं, वे सुना रहे हैं। भला वे कामना की, खेल-कूद की बात सुनाएँगे क्या? उनको उसमें कोई रस आ सकता है? राजा परीक्षित को, जो मरने जा रहे हैं। यह सोचने की बात है कि जो मरणासन्न हो, जिसने सारे भोग भोग लिये हों उसे क्या कोई काम की लीला सुनाएगा। व्याकरण की दृष्टि से, भागवत की भाषा भले ही संस्कृत भाषा हो, पर वास्तव में भागवत की भाषा समाधि की भाषा है। सतही दृष्टि से भले ही यह लौकिक भाषा लगती हो, शब्द हमारे ही शब्दकोश के हों, लेकिन उसका अर्थ समाधिगम्य हैं, समाधि में समझने वाला है। जिन्होंने अपने मन को शुद्ध नहीं किया हो, वे इस बात को समझ नहीं पाएँगे। इसे महर्षि शुकदेवजी सुना रहे हैं और वह भी मुमूर्षु परीक्षित को सुना रहे हैं, जिसका अन्तिम समय उसके समक्ष खड़ा है। क्या उसको काम की चर्चा अच्छी लग सकती है? परीक्षित बार-बार कहते हैं- मुझे भगवान का यश सुनाइये। भला शुकदेव जी क्या उसको काम चर्चा सुनाएँगे? अच्छा, इस लीला को एक और दृष्टि से भी देख सकते हैं। पूर्व अवतार में भगवान ने श्रुतियों को, ऋषियों को और अन्य स्त्रियों को भी वचन दिया था कि मैं तुम्हारे साथ रास करूँगा। हेमन्त ऋतु में भगवान ने व्रतधारी गोपियों से, तथा कुमारियों से भी कहा था कि मैं तुम्हारा प्रेम स्वीकार करूँगा। अब बताओ इन सबको जो वचन दिया था उसे पूर्ण करना भी ईश्वर का धर्म है या नहीं? आखिर जीव भगवान से मिलना चाहता है तो क्या भगवान का यह कर्तव्य नहीं कि जीव की इच्छा पूरी करें? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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