विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
30.चीर-हरण-लीला का रहस्य
लेकिन परमात्म स्वरूप के साक्षात्कार के बाद उसी शरीर, मन, इन्द्रियों के साथ काम करते रहने में कोई समस्या नहीं होती। तब उनसे कुछ नहीं बिगड़ता। गीता जी में कहा है-
वह योगी चाहे जिस प्रकार से रहे, वह मुझमें ही रहता है। न तो उसे कुछ छोड़ने की जरूरत है, न ही कुछ ग्रहण करने की। उसको कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। वेदान्त की यह बड़ी गूढ़ बात है। वह योगी तो जीवनमुक्त होता है। उसको फिर उपाधियों का बन्धन नहीं होता। उपाधियों का बन्धन अविद्या अवस्था में ही रहता है। विद्या की स्थिति में नहीं रहता, इसलिए भगवान् ने बाद में उनको वस्त्र दे दिये। फिर कहा कि तुम लोगों ने जो संकल्प किया है वह पूरा होगा तथा आपको मेरे चरण कमलों की प्राप्ति भी होगी।
तुमने अपना मन मुझमें लगा दिया है तो अब तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी हो जायेगी। उसकी सिद्धि हो जायेगी। तथास्तु! कहकर वे चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |