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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.नाम-महिमा
जीव कभी जब भगवान के सामने जाकर कहता है, ”भगवान मैंने तो इतने सारे पाप किए हैं, वे सब कैसे दूर होंगे? भगवान कहते हैं, तुम दोनों को नाप लो। तौलकर देख लो, तुम्हारा पाप बड़ा है कि मेरा नाम। लाओ, मुझे बताओ ऐसा कोई पाप है जो मेरे नाम से खत्म नहीं हो सकता हो। समझे कि नहीं? पहाड़ जैसे, पर्वत जैसे पाप हों तो भी क्या है? नाम की शक्ति कितनी विशाल है, मालूम है? बड़े-से-बड़े पर्वत को भी यदि आकाश में दिखाया जाए तो वह इतना-सा दिखाई देगा। आकाश की व्यापकता के समान, वस्तुतः तो उससे भी कहीं अधिक व्यापक नाम की शक्ति है। देखो, नाम का अर्थ क्या है? ‘नम’ माने हम झुकते हैं। और भगवान को भी जो झुका देता है, उसे ‘नाम’ कहते हैं। नाम की ऐसी शक्ति है। भगवान ने ऐसा सामान्य और सरल उपाय करके रख दिया है, लेकिन कई बार जो चीज बहुत सरल होती है, वही बहुत कठिन बन जाती है क्योंकि हमें उस पर विश्वास नहीं होता। भगवान के नाम पर यदि किसी को विश्वास हो जाए तो उसे लम्बी-चौड़ी भारी-भरकम साधना करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन क्या करें? हमारा स्वभाव ही कर्मकाण्डी हो गया है, सोचते रहते हैं यह करें, वह करें, तो यहाँ कहा केवल नाम का ही आश्रय लेना चाहिए। ‘कलियुग केवल नाम अधारा’ एक नाम ही आधार है। इसीलिए, भगवान का नाम जिन पर लिखा गया, वे पत्थर भी तैर (तर) गए। संत कहते हैं - जल ऊपर पाषाण तारे, क्यों न तारे दास रे? जब पत्थर को तार सकते हैं तो एक सेवक को, दास को, भक्त को क्यों नहीं तार सकते? नाम का आश्रय-सहारा लेना चाहिए। तो इस प्रकार यह नाम की महिमा है। जगत में दो चीजें हैं। एक नाम और एक रूप। लेकिन नाम का महत्त्व रूप से भी बढ़कर है। क्योंकि रूप हमारे सामने हो और यदि हम उसका नाम नहीं जानते हों तो रूप सामने होने के बराबर ही है। जैसे, किसी ने रसगुल्ला खाया और उसे मालूम न हो कि इसे रसगुल्ला कहते हैं, तो बाद में कोई पूछे रसगुल्ला खाया तो कहेगा नहीं खाया, रसगुल्ले का आनन्द मुझे मालूम नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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