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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
8.राजा रहूगण को जड़भरत जी का उपदेश
मनुष्य जब तक आत्म तत्त्व को नहीं जान लेता तब तक वह माया में भटकता रहता है। काम, क्रोध आदि शत्रु उसे बहुत कष्ट पानी से। पानी अग्नि से, अग्नि वायु से, वायु आकाश से, आकाश मन से, और मन परमात्मा से। तत्त्व की दृष्टि से देखने पर तुमको यह संसार कुछ नहीं दिखाई देगा। जबरदस्ती अपने आपको कुछ मान लेते हो और उसी के अनुरूप सारा-का-सारा व्यवहार करने लग जाते हो। अपने आप को राजा कहते हो और मुझे सेवक।“ अब ब्राह्मण (जड़भरत) से रहा नहीं गया।
उन्होंने स्वयं को प्रकट कर ही दिया। बोले, ”तुमको मालूम है पूर्व जन्म में मैं भरत नाम का राजा था। तुमने भरत का नाम सुना है?“ वह चौंक गया। क्योंकि भरत तो प्रसिद्ध थे। (कहा जाता है कि जिस मृग के साथ भरत आसक्त हो गए थे वह मृग रहूगण बनकर आ गया था। मृग के प्रति इनके मन में जो प्यार था वह उमड़ पड़ा और प्रकट हो ही गया। वे उसे छिपा नहीं सके। अन्तर यह था कि अब पहले जैसी ममता-मूढ़ता नहीं थी।) फिर कहते हैं, ”इसीलिए मैं कह रहा था इस संसार चक्र में कौन कब राजा बनता है, फिर कब क्या बन जाता है इसका कोई ठिकाना है? मैं पहले राजा भरत था और एक मृग में आसक्त हो गया तो मुझे मुग का जन्म मिला। परन्तु भगवान की भक्ति का ही प्रभाव था कि मेरी स्मृति तब भी बनी रही। हिरन के देह में भी मुझे सब याद था। भगवद्भक्ति का ही प्रभाव है कि अब मैं सारे बन्धनों से मुक्त हो गया हूँ।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.12.14
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