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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.ध्रुव को नारद जी का उपदेश
पाँच वर्ष का मेरा वह छोटा-सा बेटा मेरी गोद में बैठने के लिए आया और मैं पत्नी के कहने में आ गया। पत्नी ने उसे निकाल दिया और मैं देखता रहा। इस प्रकार से वे बहुत दुःखी होते हैं, रोते हैं कि मेरा छोटा-सा बच्चा वन में चला गया। वहाँ पर शेर होंगे, भालू होंगे, रीछ होंगे - वे सब उसको मार डालेंगे।
मैं कैसा नीच आदमी हूँ। मैं पत्नी का गुलाम बन गया। इस तरह वे अपने को कोसने लगे। इस पर नारद जी कहते हैं - ‘मा मा शुचः’ तुम शोक मत करो। क्योंकि - ‘स्वतनयं देवगुप्तं विशाम्पते’ तुम्हारे बच्चे की रक्षा तो स्वयं भगवान करने वाले हैं। तुमको यों ही लगता रहता है कि तुम उसकी रक्षा करने वाले हो। ध्यान में रखना, उसकी रक्षा का भार स्वयं भगवान ने ले लिया है। ‘तत्प्रभावमविज्ञाय’ तुम अभी उसके प्रभाव को नहीं जानते।
वह तो ऐसे-ऐसे सुदुष्कर कर्म करेगा जैसे पहले किसी ने नहीं किए हैं। तुम्हारा यश को वह सब ओर फैलाएगा। और वह स्वयं भी बड़ा ही यशस्वी बेटा बनेगा। तुम उसकी चिन्ता मत करो। जब नारद जी के मुख से ऐसे वचन सुने तो उत्तानपाद की चिन्ता दूर हो गयी। अब आगे भगवान मैत्रेय ऋषि भक्त ध्रुव के तप का वर्णन करते हैं। ध्रुव जी ने भगवान की जो भक्ति की उसका प्रारम्भ ‘अर्थ’ से हुआ। वे एक निश्चय पद को प्राप्त करना चाहते थे। तो वहाँ मधुवन में ध्रुव जी तप कर रहे थे। जरा सोचो, वे पाँच साल के बालक हैं। अर्थ की इच्छा से ही क्यों ही न हो, वे तप के लिये घर से निकल पड़े। तो हमें भी कभी-कभी सोचना चाहिए कि हमारी आयु इतने साल की हो गई परन्तु हमने अब तक क्या किया? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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