गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 62
राजेन्द्र ! इसलिए तुम शीघ्र ही भक्तिभाव से घर या वन में रहकर, सारे विश्व को मन के संकल्प का विलासमात्र जानकर शीघ्र ही जगदीश्वर श्रीकृष्ण के भजन में लग जाओ। नरवीर ! तुम्हारी आयु हेमन्त ॠतु की रात्रि के समान उत्तरोत्तर बढ़ती रहे और हेमन्त ॠतु के सूर्य की भाँति लोगों को तुम्हारा दर्शन सदा प्रिय लगे। तुम शत्रुओं के लिए हेमन्त ॠतु के जल की भाँति सदा अत्यन्त दुस्सह बने रहो और तुम्हारे शत्रु हेमन्त ॠतु के कमल की भाँति सदा नष्ट होते रहें। सूतजी कहते हैं- यह सुनकर राजा वज्रनाभ श्रीकृष्ण के माहात्म्य का स्मरण करते हुए हर्ष से उल्लासित तथा प्रेम से विह्वल हो गये। वे गुरु के चरणों में प्रणाम करके बोले- राजा ने कहा- भगवन ! आप करुणामय गुरुदेव के मुख से श्रीकृष्ण का माहात्म्य सुनकर मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। श्रीकृष्ण में मेरा मन लग गया । सूतजी कहते है- ऐसा कहकर नृपश्रेष्ठ वज्रनाभ ने गन्ध, अक्षत, पुष्पहार तथा जालीदार सुवर्ण की माला से गुरु गर्गाचार्य का पूजन किया। शौनक ! उन्होंने घोड़े, हाथी, रथ, शिबिकाएँ, भव्य भवन, चांदी, सोने के भार, रत्न और ग्राम देकर गुरु का पूजन किया और स्वयं हर्ष से भरे हुए उन्होंने उनका प्रणाम और परिक्रमा करके उनकी नीराजना (आरती) आदि की। तदन्तर गर्गाचार्यजी ने उठकर वज्रनाभ को आशीर्वाद दिया और भूपाल से वन्दित हो दक्षिणा के साथ वहाँ से चले गये। यमुना के तट पर ‘विश्रामघाट’ नामक तीर्थ में पहुँचकर मुनीश्वर ने मथुरावासी ब्राह्मणों को सारा धन बांट दिया। तदन्तर गर्गजी के कहने से वज्रनाभ ने मथुरा में उसी प्रकार अश्वमेध यज्ञ किया, जैसे हस्तिनापुर के राज युधिष्ठिर ने किया था। इसके बाद मथुरा में ‘दीर्घविष्णु’ और ‘केशवदेव’ के, वृन्दावन में ‘गोविन्ददेव’ के, गिरिराज गोवर्धन पर ‘हरिदेवजी’ के, गोकुल में ‘गोकुलेश्वर’ के और गोकुल से एक योजन दूर ‘बलदाऊजी’ के अर्चाविग्रहों की उन्होंने स्थापना की गयी हैं। वज्र ने हर्ष से भरकर लोगों के कल्याण के लिए व्रजमंडल में बलदाऊजी की पाँच अन्य प्रतिमाएँ भी स्थापित कीं। कलियुग के चार हजार पाँच सौ वर्ष व्यतीत होने पर गिरिराज के ऊपर श्रीनाथजी का प्रादुर्भाव होगा। उस प्रतिमा का व्रज के सूर्य के स्वरूपभूत श्रीविष्णुस्वामी पूजन करेंगे। तदन्तर वल्लभ आदि अन्य गोकुलवासी गोस्वामी उन्हीं के शिष्य होकर श्रीनाथजी की पूजा करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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