गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 16
इसीलिये इनके विषय में इस प्रकार भयभीत होने की बात कही गयी है। देवि ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम इस भूतल पर मेरी यथेष्ट रक्षा करो। तुमने कृपा करके ही मुझे दर्शन दिया है, वास्तव में तो तुम सब लोगों के लिये दुर्लभ हो’।[1] श्री राधा ने कहा- नन्द जी ! तुम ठीक कहते हो। मेरा दर्शन दुर्लभ ही है। आज तुम्हारे भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर ही मैंने तुम्हें दर्शन दिया है। श्री नन्द बोले- देवि ! यदि वास्तव में तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो तुम दोनों प्रिया-प्रियतम के चरणारविन्दों में मेरी सुदृढ भक्ति बनी रहे। साथ ही तुम्हारी भक्ति से भरपूर साधु-संतों का संग मुझे सदा मिलता रहे। प्रत्येक युग में उन संत-महात्माओं के चरणों में मेरा प्रेम बना रहे। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! तब ‘तथास्तु’ कहकर श्रीराधा ने नन्द जी को गोद से अपने प्राणनाथ को दोनों हाथों में ले लिया। फिर जब नन्दराय जी उन्हें प्रणाम करके वहाँ से चले गये, तब श्री राधिका जी भाण्डीर वन में गयीं। पहले गोलोकधाम से जो ‘पृथ्वी देवी’ इस भूतल पर उतरी थी, वे उस समय अपना दिव्य रूप धारण करके प्रकट हुई। उक्त धाम में जिस तरह पद्भराग मणि से जटित सुवर्णमयी भूमि शोभा पाती है, उसी तरह इस भूतल पर भी व्रजमण्डल में उस दिव्य भूमिका तत्क्षण अपने सम्पूर्ण रूप से आविर्भाव हो गया। वृन्दावन काम पूरक दिव्य वृक्षों के साथ अपन दिव्य रूप धारण करके शोभा पाने लगा। कलिन्दनन्दिनी यमुना भी तट पर सुवर्णनिर्मित प्रासादी तथा सुन्दर रत्नमय सोपानों से सम्पन्न हो गयी। गोवर्धन पर्वत रत्नमयी शिलाओं से परिपूर्ण हो गया। उसके स्वर्णमय शिखर सब ओर से उद्भासित होने लगे। राजन ! मतवाले भ्रमरों तथा झरनों से सुशोभित कन्दराओं द्वारा वह पर्वतराज अत्यंत ऊँचे अंग वाले गजराज की भाँति सुशोभित हो रहा था। उस समय वृन्दावन के निकुंज ने भी अपना दिव्य रूप प्रकट किया। उसमें सभाभवन, प्रांगण तथा दिव्य मण्डप शोभा पाने लगे। वसंत ऋतु की सारी मधुरिमा वहाँ अभिवयक्त हो गयी। मधुपों, मयूरों, कपोतों तथा कोकिलों के कलरव सुनायी देने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तदैव कोटयर्कसमूहदीप्तिरागच्छेती वा चलती दिशासु। बभूव तस्यां वृषभानुपुत्रीं ददर्श राधां नवनन्दभराज: ।।
कोटीन्दुतबिम्बहद्युतिमादधानां नीलाम्ब रं सुन्दरमादिवर्णन्। मञ्जीरधीरध्वनिनूपुराणामाबिभ्रतीं शब्दषमतीवमञ्जुम् ।।
काञ्चीकलाकंकणशब्दुमिश्रां हारांगुलीयांगदविस्फमरन्तीम्। श्रीनासिकामौक्तिकहंसिकीभि: श्रीकण्ठाचूडामणिकुण्डरलाढयाम् ।।
तत्तेजसा धर्षित आशु नन्दोा नत्वा।थ तामाह कृताञ्जलि: सन्। अयं तु साक्षात्पुिरुषोत्तणमस्वंशब प्रियासि मुख्या सि सदैव राधे ।।
गुप्तं। त्विदं गर्गमुखेन वेद्मि गुहाण राधे निजनाथमंकात्। एनं गृहं प्रापय मेघभीतं वदामि चेत्थंस प्रकृतेर्गुणाढयम् ।।
नमामि तुभ्यंत भुवि रक्ष मां त्वंह यथेप्सितं सर्वजनैर्दुरापा ।-(गर्ग0, गोलोक, 16। 4-8½)
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