गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 25
नरेश्वर ! मणिपुर के राजा तथा रत्नपुर के भूपाल ने घोड़े को पुन: पकड़ा, किंतु अनिरुद्ध के भय से उसको छोड़ दिया। राजन् ! वह श्रेष्ठ अश्व शूरवीरों से रहित समस्त राष्ट्रों को छोड़कर प्राची दिशा में गया, जहाँ दैत्यराज बल्वल निवास करता था। यह दैत्य नारदजी के मुख से यज्ञ संबंधी घोड़े का समाचार सुन कर नैमिषारण्य में होने वाले यज्ञ का विनाश करके वहाँ से शीघ्र ही अपने नगर को लौटा। रास्ते में उसने देखा, वह यज्ञ संबंधी घोड़ा प्रयागतीर्थ में त्रिवेणी का जल पी रहा है। राजन ! उसे देखते ही बल्वल ने भगवान श्रीकृष्ण की कोई परवा न करके उसे शीघ्र ही जा पकड़ा। उसी समय समस्त वृष्णिवंशी योद्धा दणडकारण्य का दर्शन करते हुए चर्मण्वती नदी पार करके चित्रकूट में आ पहुँचे। वहाँ श्रीराम क्षेत्र में दान करके अश्व को देखते हुए उसके पीछे लगे वे सब लोग तीर्थ राज प्रयाग में आ गए। राजन ! वहाँ पहुँचकर उन श्रेष्ठतम यादव वीरों ने देखा कि पत्र सहित अश्व को दुरात्मा असुर बल्वन ने बलपूर्वक पकड़ रखा है। बल्वल नील अंजन के ढेर की भाँति दिखाई पड़ता था। उसके शरीर की ऊंचाई दो योजन की थी। उस उग्रदैत्य के नेत्र अंगार के समान जान पड़ते थे। उसकी दाड़ी–मूँछ तपाई हुई ताम्र शिखा के समान दिखाई देती थी। बड़ी-बड़ी दाढ़ और उग्र भ्रकुटि के कारण उसका मुख भयंकर प्रतीत होता था। वह ब्राह्मण द्रोही असुर अपनी जीभ लपलपा रहा था और उसमें दस हजार हाथियों के अधर–पल्लव रोष से फड़क उठे और वे बोले- अरे ! तू कौन है ? हमारा यह यज्ञ पशु लेकर तू कहाँ जाएगा ? अत: इसे शीघ्र छोड़ दे, नहीं तो हम लोग युद्ध में तुझे मार डालेंगे। यह सुनकर उस असुर ने कहा– मनुष्यों ! मेरी बात सुनो। बल्वल ने कहा– मैं देवताओं को दु:ख देने वाला दैत्य बल्वल हूँ, जिसके सामने सारे मनुष्य भय से व्याकुल हो जाते हैं। यह सुनकर यादवों ने बल्वल को बाणों से मारना आरंभ किया। नरेश्वर ! उनके बाणों की चोट खाकर बल्वल घोड़े सहित सहसा अंतर्धान हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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