गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 9
उग्रसेन बोले- विपेन्द्र ! मैं देवर्षि नारद के मुख से जिसके महान फल का वर्णन सुन चुका हूँ, उस ‘अश्वमेध’ नामक यज्ञ का आपकी आज्ञा से अनुष्ठान करूँगा। जिनके चरणों की सेवा करके पूर्ववर्ती भूपालों ने जगत को तिनके के समान मानकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर लिया था, वे भगवान श्रीकृष्ण यहाँ साक्षात विद्यमान हैं। श्रीगर्गजी (मैं) ने कहा- महाराज ! यादव नरेश ! आपने बहुत उत्तम निश्चय किया है। अश्वमेध यज्ञ करने से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। नृपेश्वर ! अश्व की रक्षा के लिए कौन जायगा, इस बात का निश्चय कर लीजिये; क्योंकि भूमण्डल में आपके शत्रु बहुत अधिक हैं। पूरे एक वर्ष तक आपको असिपत्र-व्रत का पालन करना होगा, तभी यह श्रेष्ठ यज्ञ सकुशल सम्पन्न हो सकेगा। पूर्वकाल में राजसूय यज्ञ के अवसर पर प्रद्युम्न ने समस्त भूमण्डल पर विजय पायी थी। इस बार अश्व की रक्षा के लिए क्या आप पुन: उन्हीं की नियुक्ति करेंगे। मेरी बात सुनकर राजा चिन्ता में पड़ गये और वहाँ बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण की ओर, जो मनुष्यों के समस्त दु:ख दूर करने वाले हैं, देखने लगे। राजा को चिन्तामग्न देख भगवान ने तत्काल पान का बीड़ा लेकर हँसते हुए कहा। भगवान श्रीकृष्ण बोले- हे बलवान ! युद्ध कुशल समग्र यादववीरों ! महाराज उग्रसेन के सामने मेरी बात सुनो- ‘जो मनस्वी एवं महारथी वीर भूमण्डल के समस्त राजाओं से अश्वमेध यज्ञ-सम्बन्धी अश्व को छुड़ा लेने में समर्थ हो, वह इस पान के बीड़े को ग्रहण करे । श्रीहरि का यह वचन सुनकर युद्धकुशल यादव वीर अभिमान शून्य हो बार-बार एक दूसरे का मुँह देखने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर हाथ में वह पान का बीड़ा एक घड़ी तक रखा; ऐसा लगता मानो कमल के फूल पर तोता बैठा हो। जब सब लोग चुप रह गये, तब धनुष धारण किये ऊषापति अनिरूद्ध ने महाराज उग्रसेन को नमस्कार करके वह पान का बीड़ा ले लिया और श्रीकृष्ण के चरणों में मस्तक झुकाकर तत्काल इस प्रकार कहा। श्रीअनिरूद्ध बोले- जगदीश्वर ! मैं समस्त राजाओं से श्यामकर्ण की रक्षा करूँगा। आप मुझे इस कार्य में नियुक्त कीजिये। दीनवत्सल गोविन्द ! यदि मैं घोड़े का पालन नहीं कर सकूँ तो उस दशा में मुझ दीन की यह प्रतिज्ञा सुनिये- ‘क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र किसी ब्राह्मणी के साथ व्यभिचार करने से जिस दु:खदायिनी दुर्गति को प्राप्त होते हैं, निश्चय वही गति मुझे भी मिले। देव ! जो ब्राह्मण को गुरु बनाकर पीछे उसकी सेवा नहीं करता है, वह गति को प्राप्त होता है, अवश्य वही गति मैं भी पाऊँ। श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन ! अनिरूद्ध का वह ओजस्वी वचन सुनकर समस्त यादव आश्चर्यचकित हो गये। भगवान श्रीकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने तत्काल अपने पौत्र के सिर पर हाथ रखा। अनिरूद्ध सुधर्मा सभा में हाथ जोड़कर खड़े थे। उस समय श्रीहरि ने सबके समक्ष मेघ के समान गम्भीर वाणी में उनसे कहा। श्रीकृष्ण बोले- अनिरूद्ध ! तुम एक वर्ष तक अश्वमेधीय अश्व की समस्त राजाओं से रक्षा करते हुए फिर यहाँ लौट आओ। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता के अंतर्गत अश्वमेध चरित्र मय सुमेरू में ‘गर्गजी का आगमन’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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