गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 10
मुनीश्वरों ने जिस आत्मा को पहचाना है, वह निरीह है, बिना देह का है, सर्वत्र उसकी गति है, वह अहंकार शून्य है, शुद्धबल है, उसमें सभी गुण रहते हैं, वह स्वत: सबसे परे है, निष्फल एवं स्वयं मंगल रूप है और ज्ञान का साकार विग्रह है। वह आत्मा इस जगत के सो जाने पर भी जागता रहता है, यह देहधारी मनुष्य उसे नहीं जानता किंतु वह सबको जानता रहता है। वही आद्यपुरुष है। वह सबको देखता है; किंतु यह प्राणी उसका साक्षात्कार नहीं कर पाता। उस स्वच्छ एवं मल से रहित आत्मा की मैं उपासना करता हूँ। जिस प्रकार घट से आकाश, काष्ठ से अग्नि एवं धूल से पवन व्याप्त नहीं होता तथा रंगों से स्वच्छ स्फटिकमणि में किसी प्रकार की विरूपता नहीं आती, ठीक वैसे ही यह सनातन पुरुष गुणों के रहते हुए भी उनसे लिपायमान नहीं होता। वह ‘सत्’ शब्द से वाच्य परमात्मा लक्षणा, व्यजना, वाक्चातुरी अर्थों, पदस्फोटपरायण शब्दों तथा सर्वोत्तम गुणियों के द्वारा भी ज्ञान का विषय नहीं होता; फिर लौकिक प्राणी तो उसे जान ही कैसे सकता है भूमण्डल पर उसे कितने लोग ‘कर्ता’ कितने ‘कर्म’ कितने ‘काल’ कितने ‘परम’ सुन्दर’ तथा कितने ‘विचार’ कहते हैं। परंतु वेदान्तज्ञानी तो उसे ‘ब्रह्म’ ही कहते हैं। उस परब्रह्म को काल से उत्पन्न होने वाले गुण स्पर्श नहीं करते। परंतु वेदान्तज्ञानी तो उसे ‘ब्रह्म’ ही कहते हैं। उस परब्रह्म को काल से उत्पन्न होने वाले गुणस्पर्श नहीं करते। माया, इन्द्रिय, चित्त, मन, बुद्धि और महत्व भी उसका ग्रहण नहीं कर सकते, वेद वर्णन नहीं कर पाता तथा अग्नि में चिनगारी की भाँति उसमें सभी प्राणी विलीन हो जाते हैं। वही परमात्मा और भगवान वासुदेव कहते हैं, उन्हीं श्रेष्ठतम देव के स्वरूप का विचार करके मोह छोड़कर आसक्ति रहित होकर विचरे। जिस प्रकार एक ही चन्द्रमा अनेक जलपात्रों में अलग-अलग दीखता है तथा एक ही अग्नि अनन्त काष्ठों में वर्तमान है, उसी प्रकार एक ही परम प्रभु भगवान अपने द्वारा बनाये हुए विभिन्न जीवों के भीतर एवं बाहर विराज रहे हैं। जिस प्रकार सूर्योदय हो जाने पर रात्रि सम्बन्धी अन्धकार नष्ट होने लगती हैं और घर की वस्तुएं मनुष्यों के दृष्टिगोचर होने लगती हैं, ठीक वैसे ही ज्ञान का प्रादुर्भाव होते ही अज्ञान रूपी अन्धकार भाग जाता है। फिर तो शरीर में ही मनुष्य को ब्रह्म की उपलब्धि हो जाती है। जैसे इन्द्रियों की प्रवृतियां अलग-अलग हैं, उनके भेद से गुणों के एक ही विषय में नाना अर्थ की प्रतीति होती है, उसी प्रकार अनन्त परमप्रभु भगवान का तेजोमय स्वरूप एक ही है, जबकि मुनियों के शास्त्र अनेक हैं, जिनके कारण उसका भेदपूर्वक किया गया है। जो पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात श्रीहरि हैं, अपने कैवल्यनाथ हैं तथा जिन्होंने राजा नृग का उद्धार किया है, उन स्वयं पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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