गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 3
राजा उग्रसेन बोले- भगवन् ! समस्त लोकों को पुनरावर्ती कहा गया है। इस बात से उन सभी लोकों के प्रति मेरे अन्त:करण में निस्संदेह विराग उत्पन्न हो गया है। ब्रह्मन् ! जहाँ जाकर प्राणी वापस नहीं लौटता और जो सबसे परे है, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का वह परम धाम कहाँ पर है- यह मुझे बताने की कृपा कीजिये। श्रीव्यासजी ने कहा- जहाँ गये हुए प्राणी वहाँ से लौटते नहीं, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का वह धाम ब्रह्माण्डो के बाहर है। विज्ञजन उसे ही उत्तम ‘गोलकधाम’ कहते है। जीव-समूह से भरा हुआ पचास करोड़ योजन में विस्तृत यह ब्रह्माण्ड है। इसके आगे इससे दुगुनी अर्थात सौ करोड़ योजन के विस्तार वाली ब्रह्मदेव नाम की जलराशि है, जिसमें यह ब्रह्माण्ड परमाणु के समान दिखायी पड़ता है। उसमें इसके अतिरिक्त करोड़ों ब्रह्माण्ड और हैं। उसके उस पार वह गोलोक है, जहाँ न सूर्य का प्रकाश है, न चन्द्रमा का और न अग्नि का ही। काम, क्रोध, लोभ और मोह की वहाँ गति नहीं है। वहाँ न शोक है, न बुढ़ापा है, न मृत्यु है और न पीड़ा है। वहाँ प्रकृति और काल भी नहीं हैं, फिर गुणों का तो प्रवेश वहाँ हो ही कैसे सकता है। जो स्वयं अनिर्वाच्य है, वह शब्द ब्रह्म (वेद) भी उस लोक का वर्णन करने में असमर्थ हैं। भगवान श्रीकृष्ण के तेज से प्रकट हुए अनेक पार्षद वहाँ रहते हैं। राजन ! जो इन्द्रियों तथा मन पर विजय पाये हुए अकिंचन भक्त कुछ भी ममत्व नहीं रह गया है, जो सब में समान भाव रखने वाले हैं, जो भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के मकरन्द रस में सदा निमग्न रहते हैं तथा जो प्रेम लक्षणा भक्ति से युक्त एवं सर्वदा के लिये कामना से सर्वथा रहित हो गये हैं, वे ही समस्त लोकों को लांघकर उस उत्तम भगवद्धाम में जाते हैं- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीविज्ञान खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘व्यासजी के द्वारा गतियों का निरूपण’ नामक दूसरा अध्याय समाप्त हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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