गर्ग संहिता
बलभद्र खण्ड: अध्याय 13
यह सहस्त्र नाम मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि और चतुर्वर्ग (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) फल प्रदान करने वाला है। जो इसका सौ बार पाठ करता है, वह इस लोक में विद्यावान होता है, इस सहस्त्र नाम का पाठ करने से मनुष्य लक्ष्मी, वैभव, सद्वंश में जन्म, रूप, बल तथा तेज- सब कुछ प्राप्त करता है। गंगाजी एवं यमुनाजी के तट पर अथवा देवालय (देव मन्दिर) में इसके एक हजार पाठ करने से जबर्दस्ती सिद्धि मिलती है। इसके पाठ से पुत्र की कामना वाले को पुत्र तथा धनार्थी को धन प्राप्त होता है। बन्धन में पड़ा मनुष्य उससे मुक्त हो जाता है और रोगी का रोग चला जाता है। जो मनुष्य पुरश्चरण की विधि से पद्धति, पटल, स्तोत्र, कवच सहित इस सहस्त्र नाम का दस हजार बार पाठ करता है तथा होम, तर्पण, गोदान तथा ब्राह्मण का पूजन रूप कर्म विधिवत् करता है, वह समस्त भूमण्डल का स्वामी चक्रवर्ती राजा होता है। वह अनेक सामन्त राजाओं से घिरा रहता है। मद की गन्ध से विहल भ्रमर मतवाले हाथियों के कानों की चपेट से आहत हो उड़ते हुए उसके द्वार पर उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं। राजेन्द्र ! यदि कोई मनुष्य निष्काम भाव से रेवती रमण भगवान बलभद्रजी की प्रसन्नता के लिये इस सहस्त्र नाम का पाठ करता है तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है। अच्युताग्रज बलभद्रजी सदा-सर्वदा उसके घर में निवास करते हैं। ये महाराज ! घोर पापी मनुष्य भी यदि इस सहस्त्र नाम का पाठ करता है तो उसके मेरु के समान सारे पाप कट जाते हैं और वह इस लोक में सम्पूर्ण सूखों का उपभोग करके अन्त में परात्पर गोलोकधाम को सुखों का उपभोग करके अन्त में परात्पर गोलोक धाम को प्रयाण कर जाता है।[1] नारदजी कहते है- अच्युताग्रज श्रीबलभद्रजी इस पंचाग को सुनकर धृतिमान दुर्योधन ने सेवा-भाव तथा परम भक्ति के साथ प्राडविपाक मुनि की पूजा की। तदनन्तर मुनीन्द्र प्राडविपाक जी ने दुर्योधन को आशीर्वाद देकर उनकी अनुमति प्राप्त कर हस्तिनापुर से अपने आश्रम को गमन किया। परम ब्रह्म परमात्मा भगवान अनन्त श्रीबलभद्रजी की कथा को जो पुरुष सुनता अथवा सुनाता है, वह आनन्दमय बन जाता है। नृपेन्द्र ! मैं आपके सामने इन सब मनोरथों को पूर्ण करने वाले बलभद्र खण्ड का वर्णन कर चुका। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है, वह भगवान श्रीहरि के शोक रहित अखण्ड आनन्दमय धाम को प्राप्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इति नाम्नां सहस्रं तु बलभद्रस्य कीर्तितम् । सर्वसिद्धिप्रदं नृणां चतुर्वर्गफलप्रदम्। शतवारं पठेद्युस्तु स विद्यावान् भवेदिह ।। इन्दिरां च विभूतिं चाभिजनं रूपमेव च। बलमोजश्व पठनात्सर्वं प्राप्नोति मानव: ।। गंगाकूलेऽथ कालिन्दीकूले देवालये तथा। सहस्रवर्तपाठेन बलात् सिद्धि: प्रजायते ।। पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्। बन्धात्प्रमुच्यते बद्धो रोगी रोगान्निवर्तते ।। अयुतावर्तपाठे च पुरश्चर्याविधानत:। होमतर्पणगोदानविप्रार्चनकृतोद्यमात् ।। पटलं पद्धतिं स्तोत्रं कवचं तु विधाय च। महामण्डलभर्ता स्यान्मण्डितो मण्डलेश्वरै: ।। मत्तेभकर्णप्रहिता मदगन्धेन विह्वला। अलंकरोति तद्द्वारं भ्रमदभृंगावली भृशम् ।। निष्कारण: पठेद्युस्तु प्रीत्यर्थं रेवतीपते:। नाम्नां सहस्रं राजेन्द्र स जीवन्मुक्त उच्यते ।। सदा वसेत्तस्य गृहे बलभद्रोअच्युताग्रज:। महापातक्यपि जन: पठेन्नामसहस्रकम् ।। छित्त्वा मेरुसमं पापं मुक्त्वा सर्वसुखं त्विह। परात्परं महाराज गोलोकं धाम याति हि ।। (गर्ग संहिता, बलभद्र0 13। 132-141)
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