गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 41
नारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीहरि की ऐसी बात सुनकर समस्त यादव श्रेष्ठ वीर आकाश से गिरते हुए उस दैत्य को चमकीले बाणों से ताड़ित करने लगे। राजन् ! दीप्तिमान के बाणों से आहत हो वह दैत्य लोगों के देखते-देखते गेंद की भाँति सौ योजन ऊपर चला गया। फिर साम्ब के बाण का धक्का पाकर वह एक सहस्त्र योजन ऊपर चला गया। जब वह पुन: आकाश से नीचे गिरने लगा, तब अर्जुन ने अपने बाण से उस पर चोट की। उस बाण से वह दैत्यराज दस हजार योजन ऊपर चला गया। तदनन्तर जब वह नीचे आने लगा, तब अनिरुद्ध के बाण ने उसे लाख योजन ऊपर उछाल दिया। इसके बाद प्रद्युम्न के बाण से वह दस लाख योजन ऊपर उठ गया। तत्पश्चात् उसे पुन: आकाश से नीचे गिरते देख योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण उस पर बाण मारा, जिससे वह कोटि योजन ऊपर चला गया। इस प्रकार दो पहर तक वह दैत्य आकाश में ही स्थित रह गया, उसे नीचे नहीं गिरने दिया। तदनन्तर साक्षात श्रीहरि ने उसके ऊपर दूसरा बाण मारा। उस बाण ने सम्पूर्ण दिशाओं में उसको कोटि योजन तक घुमाकर समुद्र में वैसे ही ला पटका, जैसे हवा ने कमल के फूल को उड़ाकर नीचे डाल दिया हो। राजन् ! इस प्रकार जब उस दैत्य की मृत्यु हो गयी, तब उसके शरीर से एक प्रकाशमान ज्योति निकली और वह चारों ओर से परिक्रमा कदेर भगवान श्रीकृष्ण में विलीन हो गयी। उस समय भूतल और आकाश में जय जयकार होने लगी। विद्याधरियाँ और गन्धर्व कन्याएँ आनन्दमग्न हो आकाश में नृत्य करने लगीं, किंनर और गन्धर्व यश गाने लगे तथा सिद्ध और चारण स्तुति सुनाने लगे। समस्त ऋषियों और मुनियों ने श्रीहरि की पुरी-पुरी प्रशंसा की। ब्रह्म, रुद्र, इन्द्र और सूर्य आदि सब देवता वहाँ आ गये और श्रीकृष्ण के ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में 'शकुनि दैत्य का वध' नामक इकतालीसवां अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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