गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 33
उस खडग प्रहार से उसकी सूंड़ के दो टुकड़े हो गये और वह भयानक चीत्कार करता था गण्डस्थल से मद बहाता हुआ भूत संतापन को छोड़कर जगत को कम्पित करता हुआ भागा। बड़े बड़े वीरों को धराशायी करता हुआ बारंबार घंटे बजाता हुआ सीधे दैत्यपुरी चन्द्रावती को चला गया। कोई भी बलपूर्वक उसे रोक न सका। इस प्रकार हाथी के संग्राम भूमि से भाग जाने पर वहाँ महान कोलाहल मच गया। तब भूत संतापन ने श्रीकृष्ण पुत्र के ऊपर तीखी धारवाल चक्र चलाया, जो ग्रीष्म ऋतु के सूर्य की भाँति उद्भासित हो रहा था। महाराज ! उस घूमते चक्र को अपने ऊपर आया देख बलवान भद्राकुमार ने अपने चक्र द्वारा लीलापूर्वक उसके सौ टुकड़े कर डाले। तब उस महान असुर ने जठगिरि का एक शिखर उखाड़कर आकाश मण्डल को निनादित करते हुए श्रीकृष्ण पुत्र पर फेंका। राजेन्द्र संग्रामजित ने उस शिखर को बलपूर्वक दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसी के द्वारा रणभूमि में भूत संतापन समूचे जठगिरि को उखाड़कर उसे हाथ में ले, संग्राम भूमि में खड़ा हुआ ‘अब मैं इसी पर्वत से संग्राम में तुम्हारा काम तमाम कर दूँगा’ इस प्रकार मुख से कहने लगा। यह देख श्रीहरि के पुत्र संग्रामजित ने भी देवकूट नामक पहाड़ उखाड़ लिया और मुख से कहा-‘मैं भी इसी से युद्ध भूमि में तेरे प्राण ले लूंगा। राजन् ! यों कहकर वे उसके सामने खड़े हो गये। वह अद्भुत सी घटना हुई। नरेश्वर ! पर्वत फेंकते हुए भूत संताप पर बलवान संग्रामजित ने संग्राम में अपने हाथ के पर्वत से प्रहार किया। भारी बोझ से युक्त जठर और देवकूट दोनों पर्वत दैत्य के मस्तक पर गिरे। उनसे दो वज्रों के टकराने का सा भयानक शब्द हुआ। विदेहराज ! दोनों की चोट से गिरकर भूत-संतापन मृत्यु का ग्रास बन गया और उसकी ज्योति संग्रामजित में विलीन हो गयी। संग्रामजित की सेना में विजय सूचक दुन्दुभियाँ बजने लगीं और देवता उन भद्राकुमार के ऊपर फूल बरसाने लगे। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वाजित-खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘भूत संतापन दैत्य का वध नामक’ तैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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