गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 18
मिथिलेश्वर ! कारुष देश का राजा पौण्ड्रक भगवान श्रीकृष्ण का शत्रु था, तथापि उसने भी शंकित होन के कारण श्रीकृष्णकुमार का पूजन किया। पंचाल और कान्यकुब्ज देश में प्रद्युम्न के आगमन की बात सुनकर वहाँ के समस्त नरेश भयभीत हो गये। सबने अपने-अपने दुर्ग के दरवाजे बंद कर लिये। सब लोग यादवराज से भयातुर हो दुर्ग का आश्रय लेकर रहने ले। कितने ही लोग भाग चले। विन्ध्यदेश के अधिपति महाबली राजा दीर्घबाहु उत्तम संधि करने के लिये शम्बरारि प्रद्युम्न की सेना में आये । दीर्घबाहु बोले- आप सब यादवेन्द्र दिग्विजय के लिये आये हैं; अत: मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये। इससे मेरे चित्त में संतोष होगा। जल से भरे हुए कांच के बर्तन को बाण से बेधा जाय किंतु एक बूँद भी पानी न गिरे और बाण उसमें खड़ा रहे, बर्तन फूटे नहीं, ऐसी जिसके हाथ में स्फूर्ति हो, वह अपने इस हस्तलाघव का परिचय दे। जो मेरी इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करेंगे, उन्हें मैं अपनी कन्याएं ब्याह दूँगा। आप समस्त यादवेन्द्रगण धनुर्वेद में कुशल हैं। मैंने भी नारदजी के मुख से पहले सुना था कि यादव लोग बडे़ बलवान हैं । नारदजी कहते हैं- राजन् ! राजा दीर्घबाहु की बात सुनकर सब लोग विस्मित हो गये। उनमें से धनुर्धरों में श्रेष्ठ प्रद्युम्नजी ने भरी सभा में बिन्दुदेश के नरेश को आश्वासन देते हुए कहा- ‘तथास्तु ‘प्रद्युम्नजी ने पृथ्वी पर दो जगह बड़ा-सा बांस गाड़ दिया और उन दोनों के बीच में एक रस्सी तान दी। फिर उस रस्सी में में समस्त सत्पुरुषों के देखते-देखते जल से भरा एक कांच का घड़ा लटका दिया। फिर उन श्रीकृष्णकुमार ने धनुष उठाया और उसे भलीभाँति देखकर उसकी डोरी पर बाण का संधान किया। वह बाण छूटा और कांच के घडे़ मे धँसा हुआ वह बाण बादल में प्रविष्ट सूर्य की किरण के समान सुशोभित होता था। वह एक अद्भुत सा दृश्य था। त्रिकुश के फल की भाँति उस पात्र के न तो टुकड़े हुए, न वह अपने स्थान से विचलित हुआ; न उसमें कम्पन हुआ और न उससे एक बूंद पानी ही गिरा। विदेहराज ! भगवान प्रद्युम्न ने फिर दूसरे बाण का संधान किया। वह भी पहले बाण का स्थान छोड़कर उस घडे़ में उसी की भाँति स्थित हो गया । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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