गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 12
जो लक्षणाओं से, व्यंजना द्वारा व्यक्त होने वाली ध्वनि एवं व्यंगनार्थों से कभी ज्ञान का विषय नहीं होता, वह लौकिक वाक्यों द्वारा कैसे जाना जा सकता हैं ! उस शब्दर्थातीत परब्रह्म को नमस्कार है। कुछ लोग इस परमात्मा को ‘कर्म’ कहते हैं, दूसरे लोग उसे ‘काल’ की संज्ञा देते हैं अन्य विद्वान उसे ‘कर्ता’ एवं योग कहते हैं, दूसरे विचार के उसके ‘सांख्य’ एवं 'ब्रह्म' बताते हैं। कोई ‘परमात्मा’ और ‘वासुदेव’ कहते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, निगमागम तथा आत्मानुभव से उव परब्रह्मा के स्वरूप का विचार करके इस जगत में अनासक्त भाव से विचरे। जैसे जल के चंचल होने उसमें प्रतिबिम्बत वृक्ष भी चंचल से प्रतीत होत हैं और नेत्रों के घूमने से धरती भी घूमती सी दिखायी देते उसी प्रकार गुणों के भ्रमण से मन के भ्रान्त होने पर उसमें स्थित आत्मा भी भ्रान्त-सा जान पड़ता हैं । राजन् ! जैसे हाथ से घुमाया जाता हुआ अलात-चक्र मण्डलाकार घूमता जान पड़ता है, उसी प्रकार गुणों द्वारा भ्रान्त मन के द्वारा अज्ञानविमोहित जीव ऐसा कहने और मानने लगता है कि ’मैं करुँगा, मैं कर्ता हूँ , यह मेरा है, वह तुम्हारा है, यह तुम हो, यह में हूँ, मैं सुखी हूँ और मैं दु:खी हूँ’ इत्यादि। सत्त्व, रज और तुम- ये तीनों प्रकृति के गुण हैं, आत्मा के नहीं। उन गुणों द्वारा यह सारा जगत उसी तरह व्याप्त है, जैसे सूत से वस्त्र ओत-प्रोत होता है। सत्त्वगुण में स्थित जीव ऊपर को जाता हैं, रजोगुणी जीव मध्यवर्ती लोक में रहते हैं तथा तमोगुण की वृति में स्थित तामसजन नीचे (नरकादि में) जाते हैं। श्रीकृष्णकुमार ! जैसे अँधेरे में रखी हुई रस्सी में सर्पबुद्धि होती है, दूर से मरीचिका में जल की भ्रान्ति होती है, उसी अज्ञानमोहित जीव परब्रह्म में इस जगत की भ्रान्तधारणा बना लेता है। सुख को उसी तरह आने-जाने वाला समझो, जैसे मण्डलवर्ती राजाओं का राज्य। मनुष्यों का दु:ख भी उसी प्रकार है, जैसे नरकवासियों का। घनमाला, देह के गुण तथा दिन और रात जैसे स्थिर नहीं होता, उसी तरह सुख-दुख भी स्थिर नहीं है। जैसे तीर्थयात्रियों या व्यापारियों का समुदाय सदा साथ नहीं रहता, उसी तरह यह दृश्य– प्रपंच भी शाश्वत नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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