गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 10
करोड़ों जन्मों के संचित पापों से पतित हुआ पात की मनुष्य भी चक्रतीर्थ की सीढ़ियों तक पहँचकर मोक्ष पद पर आरुढ़ हो जाता है। बहुलाश्व ने पूछा- महामते ! महानदी गोमती में जो चक्रतीर्थ है, वह शुभ अर्थ को देने वाला तथा लोगों के लिये अधिक माननीय कैसे हो गया ? मुझे बताइये। श्रीनारदजी कहा- राजन् ! इसी विषय में विज्ञजन इस प्राचीन इतिहास का वर्णन किया करते हैं, जिसके के श्रवणमात्र से सर्वथा पापों की हानि हो जाती है। एक समय की बात है, अलकापुरी के स्वामी राजाधिराज धर्मात्मा निधिपति भगवान कुबेर ने कैलास के उतर तट की भूमि पर वैष्णवयज्ञ आरम्भ किया। उनके उस यज्ञ मे स्वयं भगवान विष्णु अपने धाम से उतर आये थे। ब्रह्म, शिव, जम्भभेदी, इन्द्र, जल-जन्तुओं के अधिपति वरुण, वायु, यम, सूर्य, सोम, सर्वजनेश्वरी, पृथ्वी, गन्धर्व, अप्सरा और सिद्ध-सभी उस यज्ञ में वहाँ पधारे थे। नरेश्वर ! समस्त देवर्षि और ब्रह्मर्षि भी वहाँ आये। उस समय कुबेर का पुत्र नलकूबर धनाध्यक्ष था। यज्ञ की रक्षा में वीरभद्र को नियुक्त किया गया था। सत्पुरुषों की सेवा का भार गजानन गणपति के ऊपर था। समस्त मरुद्रण रसोई परोसने का कार्य करते थे। स्वामि कार्तिकेय धर्मपरायण रहकर सभा मण्डप में समागत अतिथिजनों की पूजा सत्कार करते थे तथा घण्टानाद और पार्श्व मौलि- ये दोनों कुबेर के मन्त्री, जो सम्पूर्ण शास्त्र वेताओं में श्रेष्ठ थे, दानाध्यक्ष बनाये गये थे। इस प्रकार महान उत्सव से परिपूर्ण उस यज्ञ का विधिपूर्वक अनुष्ठान सम्पन्न हुआ। यज्ञान्त का अवभृथ-स्नान करके महामनस्वी राजराज कुबेर ने देवताओं को उनका उत्तम भाग दिया और ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणा दी। इस प्रकार उस श्रेष्ठ यज्ञ के परिपूर्ण होने पर जब समस्त देवर्षिगण संतुष्ट हो गये, तब दण्ड, छत्र और जटा धारण किये महर्षि दुर्वासा वहाँ आ पहुँचे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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