गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 23
हमारे इस जन्म अथवा पूर्वजन्म में जो कुछ भी पुण्य हुआ हो, उसके फलस्वरूप हमारा चित्त सदा तुम्हारे चरणारविन्दों में लगा रहे। जिनका चित्त तुम्हारे चरण-कमल में लगा हुआ हैं, वे भक्तजन तुम्हें सदा ही प्रिय हैं। तुम प्रकृति से परे निर्गुण हो, तथपि अपने भक्तों के लिये सगुण हो जाते हो। तुम्हें अपने भक्त से अधिक प्रिय शिव, ब्रह्मा और लक्ष्मी भी नहीं हैं। जो ब्रह्मपद आदिकी अभिलाषा को छोड़कर तुझ भगवान का निष्काम भाव से भजन करते हैं वे युक्त चित्त पुरुष ही शान्त एवं निरपेक्ष सुख का अनुभव करते हैं।[1] श्रीनारद जी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर वे सब गोप प्रेम से विह्वल हो श्रीकृष्ण के देखते-देखते आनन्द के आँसू बहाते हुए रोने लगे। भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण के मुख पर भी अश्रु की धारा बह चली। वे प्रसन्नचेता परमेश्वर उन विरह-विहवल गोपों से बोले। श्रीभगवान ने कहा- व्रजवासियों ! तुम सब मेरे प्राण हो और मेरे परम प्रिय हो। मेरा हृदय तुम लोगों में ही स्थित है, केवल शरीर अन्यत्र दिखायी देता है। मैं प्रतिमास तुम सबको देखने और दर्शन देने के लिये आऊँगा यह वचन देता हूँ। मन से मैं दूर नहीं हूँ। मन हीं सबका कारण है[2]। हे गोपागण ! यादवों से युद्ध करने के लिये जरासंध आया है, अतः यदुवंशियों की सहायता के लिये मैं जाता हूँ, तुम्हें शोक नहीं होना चाहिये। श्रीनारदजी कहते है- राजन् ! इस प्रकार उन गोपों बार-बार आश्वासन दे, फिर लौटकर यशोदा सहित नन्दराज को दूसरे रथ पर बिठाया और श्रीदामा आदि सखाओं को साथ ले, उद्धव सहित रथ पर आरूढ़ हो, वे सर्वकारण कारण भगवान मथुरा को गये। वीर ! जब तक रथ, उसमें जुते हुए सौ वेगशाली घोडे़ और फहराती पताका से युक्त तिरंगा ध्वज तथा उड़ती हुई धूल दिखायी देती रही, तब तक अन्य व्रजवासी वहीं खडे़ रहे फिर वे अपने घर को लौट आये। श्रीकृष्णचन्द्र का यह परम उत्तम विचित्र चरित्र मनुष्यों के महान पापों को हर लेने वाला है। जो भक्तप्रवर पृथ्वी पर इस चरित्र को सुनता है, वह उत्तमोत्तम गोलोकधाम में जाता है। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीमथुरा खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में व्रजयात्रा के प्रसंग में 'श्रीकृष्ण का आगमन’ नामक तेइसवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शीघ्रमागच्छ हे कृष्ण सर्वोत्रों व्रजवासनि:। पाहि संदर्शनं देहि देवभ्यो हृामृतं यथा ।।
त्वमेव सर्वदा देव यशोदानन्ददायक:। श्रीनन्दनन्दनस्त्वं वै जीवनं व्रजवासिनाम् ।।
व्रजे धनं कुले दीपो मोहनो महतामपि। तथा निदाघदग्धस्य प्राप्तं वै शीतलं जलम् ।।
शीतार्तस्य यथा वहिनर्ज्वरार्तस्य यथोषधम्। मृतस्य मानवस्यापि पीयूषं मंगल यथा ।।
तथा व्रजस्य सर्वस्य जीवनं तव दर्शनम्। तस्मादत्र स्थितिं कुर्याद् बहुना कथितेन किम् ।।
यत्रोऽस्ति किंचित्सुकृतमस्मिन् वा पूर्वजन्मनि। तत्फलेन सदा चेतो भूयात् त्वत्पादपंकजे ।।
येषां चेतस्त्वपदाब्जे ते भक्तास्व्त्वत्प्रिया: सदा। भक्तार्थं सगुणोऽसि त्वं निर्गुण: प्रकृते: पर: ।।
तव भक्तात्प्रियो नास्ति शिवो ब्रह्म न चेन्दिरा ।
विसृज्य पारमेष्ठयादि निष्कामास्त्वां भजन्ति ये। नैरपेक्ष्यं सुखं शान्तं ते विदुर्युक्तचेतस: ।।-(गर्ग0, मथुरा0 23। 8-25) - ↑ मत्प्राणा मत्प्रिया यूयं सर्वे वै व्रजवासिन: हृदयं मेऽस्ति युष्मासु देहोऽन्यत्र विलक्ष्यते ।।
मासं प्रत्यागमिष्यामि युष्मान् द्रष्टुं वचो मम। मनसा नहि दूरोऽस्मि मन: सर्वस्य कारणम् ।।-(गर्ग0, मथुरा0 23। 8-29)
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