गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 22
रम्भोरू राधे ! जैसे विरजा तुम्हारे भय से द्रवरूपता को प्राप्त हो गयी, जैसे विरजा के सातों पुत्र सात समुद्रों के रूप में द्रवभाव को प्राप्त हो गये, जैसे विष्णु 'कृष्णा' नदी हुए, जैसे शिवदेव 'वेणी' नदी हुए, जैसे ब्रह्मा 'ककुद्यिनी गंगा' हुए और जैसे अप्सरा 'गण्डकी' नदी हो गयी, उसी प्रकार ये ऋभु नामक मुनि भी ब्रह्माभाव को प्राप्त हुए हैं। यह ऋभु की प्रेमलक्षणा-भक्ति सम्भव हुआ है। इसमें संशय नहीं है। जो इस पपपहारिणी पवित्र कथा का श्रवण करता हैं, वह मनुष्य सब लोकों को लाँघकर मेरे गोलोकधाम में चला जाता है। श्रीनारदजी कहते है- राजन् ! इस प्रकार अपनी प्रिया श्रीराधा से कहकर श्रीहरि ऋभु के आश्रम से श्री राधा के साथ ही मालती-वन में चले आये। फिर गोपियों की विरह-व्यथा को जान भक्त-वत्सल भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ यमुना के मंगलमय पुलिन पर चले आये। उस समय समस्त गोपीगणों का मान और व्यथा-भार दूर हो गया। उन्होंने जैसे चपलाएँ मेघ का आलिंगन करती हैं, उसी प्रकार घनश्याम को अपनी भुजाओं में भर लिया। तब श्रीहरि वृन्दावन में यमुना के मनोहर तट पर गोपांग्नाओं के साथ मधुर स्वर में वंशी बजाने लगे। भगवान के उस मधुर राग से गोपकन्याएँ मूर्च्छित हो गयीं, नदियों वेग रूक गया, पक्षी अचल हो गये। समस्त देवताओं ने मौन धारण कर लिया देवनायक स्तब्ध हो गये, वृक्षों से जल बहने लगा तथा सारा जगत मानो निद्रा में निमग्न हो गया। रात्रिकाल में रास रचाकर श्रीराधिका और गोपियों के मनोहर पूर्ण करके ब्राह्म मुहूर्त में भगवान श्रीकृष्ण नन्द भवन को लौट आये। गोपिकाओं के साथ श्रीराधिका भी अपना आनन्दमय मनोरथ प्राप्त करके वृषभानुवर के सुन्दर मन्दिर में चली गयीं। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीमथुरा खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में 'नारदोपाख्यान’ नामक बाइसवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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