गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 13
गोप बोले– मित्र ! ये नन्दनन्दन आ रहे हैं, जो हमारे प्रिय सखा है, निस्संदेह वे ही हैं। मेघ के समान श्यामकान्ति, शरीर पर पीताम्बर, गले में वैजयन्ती माला तथा कानों में रत्नमय कुण्डल इनकी शोभा बढ़ाते हैं। वक्ष:स्थल पर कौस्तुभमणि, हाथ में सहस्त्रदल कमल धारण करके माथे पर वही मुकुट पहने हुए हैं, जो करोड़ों मार्तण्डों के तेज को तिरस्कृत कर देता है। वे ही घोडे़ और वही किंकिणीजाल से मण्डित रथ है। इस रथ पर बलदेव जी नहीं है, अकेले नन्दनन्दन ही दिखायी देते हैं । नारदजी कहते हैं– विदेहराज ! इस प्रकार बातें करते हुए श्रीदामा आदि गोपाल कृष्ण की ही आकृति धारण करने वाले कृष्ण-सखा उद्धव के पास रथ के चारों ओर से आ गये। निकट आने पर वे बोले- 'श्रीकृष्ण तो नहीं हैं, किंतु साक्षात उनके ही समान आकृति वाला यह पुरुष कौन है ?' इस तरह बोलते हुए उन गोपालों को नमस्कार करके उद्धव ने उन सबको हृदय से लगाया और अपनी स्वामी श्यामसुन्दर की चर्चा आरम्भ की । उद्धव बोले– श्रीदामन ! यह तुम्हारे सखा श्रीकृष्ण का दिया हुआ पत्र है, इसमें संशय नहीं है, तुम इसे ग्रहण करो। ग्वाला-बालों सहित तुम शोक न करो। साक्षात् श्रीहरि सकुशल हैं। वे भगवान यादवों का महान कार्य सिद्ध करके बलरामजी के साथ थोडे़ ही दिनों में यहाँ आयेंगे । नारदजी कहते हैं– राजन ! उनके हाथ के दिये हुए पत्र को पढ़कर श्रीदामा आदि वज्र के बालक बहुत आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी में बोले । गोपो ने कहा– हे पथिक ! निर्मोही नन्दनन्दन में ही हमारा तन, वैभव, धन बल और समस्त अनत:करण लगा हुआ है। श्रीकृष्ण के बिना हमारा व्रज ही नहीं शून्य हुआ है, हमारे लिये सारा संसार सूना हो गया है। महामते ! श्रीहरि के बिना उनके वियोग के दु:ख से हम व्रजवासियों के लिये एक-एक क्षण युग के समान, एक-एक घड़ी मन्वन्तर के तुल्य, एक-एक प्रहर कल्प के समान तथा एक-एक द्विपरार्ध के सदृश हो गया है। उद्धव ! हम दिन-रात उसे भुला नहीं पाते। हमारे जीवन में वह कैसी दुष्ट घड़ी आयी थी, जिसमें श्यामसुन्दर यहाँ से चले गये। यद्यपि हम मित्रता के नाते सदा उनका अपराध करते रहे हैं, तथापि हम वनवासियों के मन को उनहोंने सदा के लिये हर लिया । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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