गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 12
नारदजी ने कहा– राजन् ! पूर्वकाल की बात है, कुबेर की राजधानी अलका में 'देवयक्ष' नाम से प्रसिद्ध एक यक्ष रहता था। वह ज्ञानी, ज्ञानपरायण, शिव-भक्ति से सम्मानित तथा महातेजस्वी था। उसके आठ पुत्र हुए जिनके नाम इस प्रकार हैं- देवकूट, महागिरि, गण्ड, दण्ड, प्रचण्ड, खण्ड, अखण्ड, और पृथु। एक दिन शिवपूजा के निमित्त अरूणोदय की वेला में एक सहस्त्र पुण्डरीक-पुष्प लाने के लिये देवयक्ष की आज्ञा पाकर वे सब गये। उन्होंने भ्रमरों के गुंजारव संयुक्त सहस्त्र कमल-पुष्प मानसरोवर से लाकर, उनकी गन्ध को लोभ से सूँघकर पिता को अर्पित किये। फूलों की उच्छिष्ट करने के दोष से शिवपूजा से तिरस्कृत हुए वे मूढ़ यक्ष तीन जन्मों के लिये असुर योनि को प्राप्त हुए। मिथिलेश्वर ! कंस के छोटे भाईयों के पूर्वजन्म का यह वृतान्त मैंने कहा, तुम और क्या सुनना चाहते हो ? । बहुलाश्व ने पूछा– ब्रह्मन् ! यह शंखरूपधारी दैत्य पंचजन पूर्वजन्म में कौन था, जिसकी अस्थियों का शंख भगवान श्रीकृष्ण के करकमल में सुशोभित हुआ ? । नारदजी कहते हैं– विदेहराज ! पूर्वकाल से ही ये चक्र आदि त्रिलोकीनाथ श्रीहरि के उपांग रहे हैं। वे सब-के-सब उनके तेज से संग्रहीत हुए थे। राजन् ! उनमें से पाञ्चजन्य शंख को बड़ी उँची पदवी प्राप्त हुई। वह श्रीकृष्ण के मुँह से लगकर उनके अधरामृत का पान किया करता था । एक दिन शंखराज ने मन-ही-मन मान का अनुभव किया और इस प्रकार कहा- 'मेरी कान्ति राजहंस के समान श्वेत है। मुझे साक्षात श्रीहरि ने अपने हाथों से गृहीत किया है। मैं दक्षिणावर्त शंख हूँ और युद्ध में विजय प्राप्त होने पर श्रीकृष्ण मुझे बजाया करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण जो अधरामृत क्षीरसागर कन्या लक्ष्मी के लिये भी दुर्लभ है, उसेमैं दिन-रात पीता रहता हूँ, अत: मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ।' विदेहराज ! इस प्रकार मान प्रकट करते हुए पाञ्चजन्य शंख को लक्ष्मी ने क्रोधपूर्वक शाप दिया - 'दुर्मते ! तू दैत्य हो जा।' वही शंखराज समुद्र में यह पंचजन नामक दैत्य हुआ था, जो वैरभाव से भजन के कारण पुन: देवेश्वर श्रीहरि को प्राप्त हुआ। उसकी ज्येाति देवेश्वर श्रीकृष्ण में लीन हो गयी और अब वह उन्हीं के हाथ में शोभा पाता है। उस शंखराज का सौभाग्य अद्भुत है, अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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