गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 11
नारदजी ने कहा– राजा बलि के एक विशालकाय एवं बलवान पुत्र था, जिसका नाम था– मन्दगति। वह समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तथा एक लाख हाथियों के समान बलशाली था। एक समय श्रीरंगनाथ की यात्रा के लिये वह घर से निकला और जन-समुदाय में सम्मिलित हो गया। मन्दगति मतवाले हाथी के समान वेग से भुजाएँ हिलहिलाकर लोगों को कुचलता जा रहा था। रास्ते में उसकी भुजाओं के वेग से बूढे़, त्रित मुनि गिर पड़े। उनहोंने कुपित होकर उस मतवाले बलिष्ठ बलिकुमार को शाप दे दिया। त्रित ने कहा- 'दुर्मते ! तू हाथी के समान मदोन्मत्त होकर रंग-यात्रा में लोगों को कुचलता जा रहा है, अत: हाथी हो जा।' इस प्रकार शाप मिलने पर वह बलवान दैत्य मन्दगति तत्काल तेजो भ्रष्ट हो गया और उसका शरीर केंचुल की भाँति छूटकर नीचे जा गिरा। मुनि के प्रभाव को जानने वाले उस दैत्य ने तुरंत ही हाथ जोड़ प्रणाम और परिक्रमा करके त्रित मुनि से कहा। मन्दगति बोला- हे मुने ! कृपासिनधों ! आप द्विजों में श्रेष्ठ योगीन्द्र हैं। इस गज-योनि से मुझे कब छुटकारा मिलेगा, यह मुझे शीघ्र बताइये। मुने !आज से आप-जैसे महात्माओं की अवहेलना मेरे द्वारा कभी नहीं होगी। ब्रह्मन ! आप-जैसे मुनि वर और शाप-दोनों को देने में समर्थ हैं। नारदजी कहते हैं- राजन ! उस दैत्य द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर महामुनि त्रित का क्रोध दूर हो गया। फिर उन कृपालु ब्राह्मण शिरोमणि ने उस दैत्य से कहा। त्रित बोले- दैत्यराज ! मेरी बात झूठी नहीं हो सकती, तथापि तुम्हारी भक्ति से मैं अत्यनत प्रसनन हूँ। इसलिये तुम्हें ऐसा दिव्य वर प्रदान करूँगा, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। दैत्येन्द्र ! शोक न करो। श्रीहरि की नगरी मथुरा में श्रीकृष्ण के हाथ से तुम्हारी मुक्ति होगी, इसमें संशय नहीं है। नारदजी कहते हैं- राजन ! वही यह मन्दगति दैत्य विनध्यपर्वत कुवलयापीड़ नाम से विख्यात हाथी हुआ, जो बल में अकेला ही दस हजार हाथियों के समान था। उसे मगधराज जरासंध ने लाख हाथियों के द्वारा वन में पकड़ा। विदेहराज ! फिर उसने कंस को दहेज में वह हाथी दे दिया। त्रित मुनि के कथनानुसार उसका तेज श्रीकृष्ण में लीन हुआ। यह प्रसंग मैंने तुमसे कहा, अब और क्या सुनना चाहते हो ?। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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