गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 2
राजन् ! वह अपने पैरों से, दाँतो से, गर्दन के अयालों से, पूँछ और तीखी खुरों से बार-बार श्रीहरि पर आघात करने लगा। तब श्रीहरि ने उसे दोनों हाथों से पकड़कर इधर-उधर घुमाना आरम्भ किया और जैसे बालक कमण्डलु फेंक दे, उसी प्रकार उन्होंने आकाश में उस दैत्य नीचे गिरा दिया। फिर भगवान श्रीहरि ने उसके मुँह में अपनी बाँह डाल दी। वह बाँह उसके उदर तक जा पहुँची और असाध्य रोग की भाँति बड़े जोर से बढने लगी। इससे उस महान् असुर की प्राणवायु अवरूद्ध हो गयी और वह मल त्यागने लगा। उसका पेट फट गया और वह अश्वरूपधारी असुर तत्काल दिव्य रूप धार लिया और मुकुट तथा कुण्डलों से मण्डित हो भगवान श्रीकृष्ण को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। कुमुद बोला- माधव ! मैं इन्द्र का अनुचर हूँ। मेरा नाम कुमुद है। मैं बड़ा तेजस्वी, रूपवान् और वीर था तथा देवराज इन्द्र छत्र लगाया करता था। पूर्वकाल में वृत्रासुर का वध हो जाने पर प्राप्त हुई ब्रह्म-हत्या की शांति के लिये स्वर्गलोक के स्वामी ने अश्वमेध नामक उत्तम यज्ञ का अनुष्ठान किया। अश्वमेध का घोड़ा श्वेत वर्ण का था। उसके कान श्याम रंग के थे और वह मन के समान तीव्र वेग से चलने वाला था। मेरे मन में उस पर चढ़ने की इच्छा इुई। इस कामना से मैं प्रसन्न हो उठा और उस घोडे़ को चुराकर अतललोक में चला गया। तब मरुद्रणों ने मुझ महादुष्ट को पाश में बाँधकर देवराज इन्द्र के पास पहुँचाया। देवेन्द्र ने मुझे शाप देते हुए कहा- 'दुर्बुद्धे ! तू राक्षस हो जा। भूतल पर दो मन्वन्तरों तक तेरी घोडे़ की-सी आकृति रहे' प्रभो ! आज आपका स्पर्श पाकर मैं उस शाप से तत्काल मुक्त हो गया हूँ। देव ! अब मुझे अपना किंकर बना लीजिये। मेरा मन आपके चरण कमल में लग गया है। आप समस्त लोकों के एकमात्र साक्षी हैं, आप भगवान श्रीहरि को नमस्कार है। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! मिथिलेश्वर ! यों कहकर, परमेश्वर श्रीकृष्ण की परिक्रमा करके, कुमुद अत्यन्त प्रकाशमान उत्तम विमान पर आरूढ़ हो, दिशामण्डल को उद्दीप्त करता हुआ वैकुण्ठलोक को चला गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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