गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 17
गौओं के समुदाय तथा गोप-गोपियों की क्रीड़ा से कलित कलिन्द-नन्दिनी यमुने ! कृष्णप्रभे ! तुम्हारे तट पर जो जल की गोलाकार, चपल एवं उत्ताल तरंगों का कोलाहल (कल-कल रव) होता है, वह सदा मेरी रक्षा करे। तुम्हारे दुर्गम कुंजों के प्रति कौतूहल रखने वाले भ्रमर समुदाय के गुंजारव, मयूरों की केका तथा कूजते हुए कोकिलों की काकली का शब्द भी उस कोलाहल में मिला रहता है तथा वह व्रजलताओं के अलंकार को धारण करने वाला है। शरीर में जितने रोम हैं, उतनी जिह्वाएँ हो जायँ, धरती पर जितने सिकताकण हैं, उतनी ही वाग्देवियाँ आ जायँ, धरती पर जितने सिकताकण हैं, उतनी ही वाग्देवियाँ आ जायँ और उनके साथ संत-महात्मा भी शेषनाग के समान सहस्त्रों जिहृाओं से युक्त होकर गुणगान करते लग जायँ, तथापि तुम्हारे गुणों का अन्त कभी नहीं हो सकता। कलिन्दगिरि नन्दिनी यमुना का यह उत्तम स्तोत्र यदि उष:काल में ब्राह्मण के मुख से सुना जाये अथवा स्वयं पढ़ा जाये तो भूतल पर परम मंगल का विस्तार करता है। जो कोई मनुष्य भी यदि नित्यश: इसका धारण (चिन्तन) करे तो वह भगवान की निज निकुंजलीला के द्वारा वरण किये गये परम पद को प्राप्त होता है।[1] इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में माधुर्य खण्ड के अन्तर्गत श्रीसौभरि-मांधाता के संवाद में ‘श्रीयमुनास्तोत्र’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मार्तण्डकन्यकायास्तु स्तवं णु महामते। सर्वसिद्धिकरं भूमौ चातुर्वर्ग्यफलप्रदम् ।।
कृष्णवामांसभूतायै कृष्णायै सततं नम:। नम: श्रीकृष्णरूपिण्यै कृष्णे तुभ्यं नमो नम: ।।
य: पापपंकाम्बुक्लंककुत्सित: कामी कुधी: सत्सु कलिं करोति हि। वृन्दावनं धाम ददाति तस्मै नन्दन्मिलिन्दादि कलिन्दनन्दिनी ।।
कृष्णे साक्षात् कृष्णरूपा त्वमेव वेगावर्ते वर्तते मत्स्यरूपी। उर्मावूर्मौ कूर्मरूपी सदा ते बिन्दौ बिन्दौ भाति गोविन्ददेव: ।।
वन्दे लीलावतीं त्वां सघनघननिभां कृष्णवामांसभूतां वेगं वै वैरजाख्यं सकलजलचयं खण्डमन्तीं बलात् स्वात् ।।
छित्त्वा ब्रह्माण्डमारात् सुरनगरनगान् गण्डशैलादिदुर्गान् भित्त्वा भूखण्डमध्ये तटिनि धृतवतीमूर्मिमालां प्रयान्तीम् ।।
दिव्यं कौ नामधेयं श्रुतपथ यमुने दण्डयत्यद्रितुल्यं पापव्यूहं त्वखण्डं वसतु मम गिरामण्डले तु क्षणं तत् ।।
दण्ड्यांश्चाकार्यदण्ड्यान् सकृदपि वचसा खण्डितं यद् गृहीतं भ्रातुर्मार्तण्डसूनो रटति पुरि दृढस्ते प्रचण्डेति दण्ड: ।।
रज्जुर्वा विषयान्धकूपतरणे पापाखुदर्वीकरी वेण्युष्णिच्क विराजमूर्तिशिरसो मालास्ति वा सुन्दरी ।।
धन्यं भाग्यमत: परं भुवि नृणां यत्रादिकृदवल्लभा गोलोकऽप्यतिदुर्लभातिसुभगा भात्यद्वितीया नदी ।।
गोपीगोकुलगोपकेलिकलिते कालिन्दि कृष्णप्रभे त्वत्कूले जललोलगोलविचलत्कल्लोलकोलाहल: ।।
त्वत्कान्तारकुतूहलालिकुलकृज्झंकारकेकाकुल: कूजत्कोकिलसंकुलो व्रजलतालंकारभृत् पातु माम् ।।
भवन्ति जिह्वास्तनुरोमतुल्या गिरो यदा भूसिकता इवाशु। तदप्यलं यान्ति न ते गुणान्तं सन्तो महान्त: किल शेषतुल्या: ।।
कलिन्दिगिरिनन्दिनीस्तव उषस्ययं वापर:। श्रुतश्च यदि पाठितो भुवि तनोति सन्मंगलम् ।।
जनोऽपि यदि धारयेत् किल पठेच्च यो नित्यश:। स याति परमं पदं निजनिकुञ्जलीलावृतम् ।। -(गर्ग0 माधुर्य0 17। 2-11)
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