गर्ग संहिता
गिरिराजखण्ड : अध्याय 9
राजन ! इस तरह अपने सम्पूर्ण लोक की रचना करके असंख्य ब्रह्मण्डों के अधिपति, परात्पर, परमात्मा,परमेश्वर, परिपूर्ण देव श्रीहरि वहाँ श्रीराधा के साथ सुशोभित हुए। उस गोलोक में एक दिन सुन्दर रासमण्डल में , जहाँ बजते हुए नूपुरों का मधुर शब्द गूँज रहा था, जहाँ का आँगन सुन्दर छत्र में लगी हुई मुक्ताफल की लड़ियों से अमृत की वर्षा होती रहने के कारण रस की बड़ी-बड़ी बूँदों से सुशोभित था, मालती के चँदोवों से स्वत: झरते हुए मकरन्द और गन्ध से सरस एवं सुवासित था, जहाँ मृदंग, तालध्वनि और वंशीनाद सब और व्याप्त था, जो मधुरकण्ठ से गाये गये गीत आदि के कारण परम मनोहर प्रतीत होता था तथा सुन्दरियों के रासरस से परिपूर्ण एवं परम मनोरम था, उसके मध्यभाग में स्थित कोटिमनोजमोहन हृदय वल्लभ से श्रीराधा ने रसदान-कुशल कटाक्षपात करके गंभीर वाणी में कहा। श्रीराधा बोलीं- जगदीश्वर ! यदि आप रास में मेरे प्रेम से प्रसन्न हैं तो मैं आपके सामने अपने मन की प्रार्थना व्यक्त करना चाहती हूँ। श्रीभगवान बोले- प्रिये ! वामोरु !! तुम्हारे मन में इच्छा हो, मुझसे माँग लो। तुम्हारे प्रेम के कारण मैं तुम्हें अदेय वस्तु भी दे दूँगा। श्रीराधा ने कहा– वृन्दावन में यमुना के तटपर दिव्य निकुंज पार्श्व भाग में आप रास रस के योग्य कोई एकान्त एवं मनोरम स्थान प्रकट कीजिये। देवदेव ! यही मेरा मनोरथ है। नारदजी कहते हैं– राजन ! तब ‘तथास्तु‘ कहकर भगवान ने एकान्त–लीला के योग्य स्थान का चिन्तन करते हुए नेत्र-कमलों द्वारा अपने हृदय की ओर देखा। उसी समम गोपी-समुदाय के देखते-देखते श्रीकृष्ण के हृदय से अनुराग के मूर्तिमान अंकुर की भाँति एक सघन तेज प्रकट हुआ। रासभूमि में गिरकर वह पर्वत के आकर में बढ़ गया। वह सारा-का-सारा दिव्य पर्वत रत्नधातुमय था। सुन्दर झरनों और कन्दराओं से उसकी बड़ी शोभा थी। कदम्ब, बकुल, अशोक आदि वृक्ष तथा लता-जाल उसे और भी मनोहर बना रहे थे। मन्दार और कुन्दवृन्द से सम्पन्न उस पर्वत पर भाँति-भाँति के पक्षी कलरव कर रहे थे। विदेहराज ! एक ही क्षण में वह पर्वत एक लाख योजना विस्तृत और शेष की तरह सौ कोटि योजन लंबा हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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