गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 2
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डहल में आगमन नन्दजी ने पूछा- महाप्रज्ञ सन्नन्द जी ! आप सर्वज्ञ और बहुश्रुत हैं, मैंने आपके मुख से व्रजमण्डल के माहात्म्य का वर्णन सुना। अब ‘गोवर्धन’ नाम से प्रसिद्ध जो पर्वत है, उसकी उत्पत्ति कैसे हुई- यह मुझे बताइये। इस गिरिश्रेष्ठ गोवर्धन को लोग ‘गिरिराज’ क्यों कहते हैं ? यह साक्षात यमुना नदी किस लोक से यहाँ आयी है ? उसका माहात्म्य भी मुझसे कहिये; क्योंकि आप ज्ञानियों के शिरोमणि हैं। सन्नन्द जी बोले- एक समय की बात है, हस्तिनापुर में महाराज पाण्डु ने धर्मधारियों में श्रेष्ठ श्री भीष्म जी से ऐसा ही प्रश्न किया था। उनके उस प्रश्न को और भीष्म जी द्वारा दिये गये उत्तर को अन्य बहुत से लोग सुन रहे थे। (उस समय भीष्म जी ने जो उत्तर दिया, वही मैं यहाँ सुना रहा हूँ) साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण, जो असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति, गोलोक के नाथ और सब कुछ करने में समर्थ हैं, जब पृथ्वी का भार उतारने के लिये स्वयं इस भूतल पर पधारने लगे, तब उन जनार्दन देव ने अपनी प्राणवल्लभा राधा से कहा- प्रिये ! तुम मेरे वियोग से भयभीत रहती हो, अत: भीरू ! तुम भी भूतल पर चलो’। श्री राधा जी बोलीं- प्राणनाथ ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, जहाँ यह यमुना नदी नहीं है तथा जहाँ गोवर्धन पर्वत नहीं है, वहाँ मेरे मन को सुख नहीं मिल सकता। सन्नन्द जी कहते हैं- नन्द राज ! श्री राधा की यह बात सुनकर स्वयं श्री हरि ने अपने धाम से चौरासी कोस विस्तृत भूमि, गोवर्धन पर्वत और यमुना नदी को भूतल पर भेजा। उस समय चौरासी कोस विस्तार वाली गोलोक की सर्वलोकवन्दिता भूमि चौबीस वनों के साथ यहाँ आयी। गोवर्धन पर्वत ने भारतवर्ष से पश्चिम दिशा में शाल्मलीद्वीप के भीतर द्रोणाचल की पत्नी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया। उस अवसर पर देवताओं ने गोवर्धन के ऊपर फूल बरसाये। हिमालय और सुमेरू आदि समस्त पर्वतों ने वहाँ आकर प्रणाम और परिक्रमा करके गोवर्धन का विधिवत पूजन किया। पूजन के पश्चात् उन महान पर्वतों ने उसकी स्तुति प्रारम्भ की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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