कविता भाटिया (वार्ता | योगदान) |
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आप तो समझदार राजा हैं, आप ही सोचकर बताइये कि मेरे दुःख का कारण क्या है? जब उसने (बैल ने) ऐसी बात कही, तो राजा परीक्षित ने उसे पहचान लिया। बोले, मैं समझ गया तुम साक्षात धर्म हो। तभी तुमने किसी की चुगली नहीं की। | आप तो समझदार राजा हैं, आप ही सोचकर बताइये कि मेरे दुःख का कारण क्या है? जब उसने (बैल ने) ऐसी बात कही, तो राजा परीक्षित ने उसे पहचान लिया। बोले, मैं समझ गया तुम साक्षात धर्म हो। तभी तुमने किसी की चुगली नहीं की। | ||
− | <poem style="text-align:center;">; | + | <poem style="text-align:center;">;धर्म ब्रवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वृषरूपधृक।<ref>1.17.22</ref></poem> |
देखो, अपने दुःख के लिए किसी और को दोष देना भी अर्धम ही है। अतः किसी को दोष मत दो। धर्म के चार पैर-पाद बताए जाते हैं- तप, शौच-शुद्धता, दया और सत्य। इन चार पैरों के ऊपर धर्म चलता है। अर्थात तम माने इन्द्रियसंयम-इन्द्रियजय, मन की एकाग्रता, शौच माने मन की तथा बाहर की शुद्धता, दया माने प्राणिमात्र के प्रति कल्याण की भावना और सत्य, इन चारों का पालन जहाँ होता है वहीं पर धर्म की निष्ठा होती है। | देखो, अपने दुःख के लिए किसी और को दोष देना भी अर्धम ही है। अतः किसी को दोष मत दो। धर्म के चार पैर-पाद बताए जाते हैं- तप, शौच-शुद्धता, दया और सत्य। इन चार पैरों के ऊपर धर्म चलता है। अर्थात तम माने इन्द्रियसंयम-इन्द्रियजय, मन की एकाग्रता, शौच माने मन की तथा बाहर की शुद्धता, दया माने प्राणिमात्र के प्रति कल्याण की भावना और सत्य, इन चारों का पालन जहाँ होता है वहीं पर धर्म की निष्ठा होती है। | ||
01:14, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
11.धर्म व पृथ्वी का संवाद
हम सब तो बड़े अज्ञानी, मोहित लोग हैं। इसलिए, जिसके कारण हमसे सारे दोष आते रहते हैं। दुःख होता रहता है हम उसको जानते ही नहीं। कोई कहता है दैव के कारण दुःख आता है, तो कोई कहता है अपने कर्मों से आता है, तो कोई कहता है अपने स्वभाव से दुःख आता रहता है, तो कोई कहता है इसका कोई तर्क नहीं हो सकता, यह बताया नहीं जा सकता कि हमें जो दुःख होता है उसका कारण क्या है। आप तो समझदार राजा हैं, आप ही सोचकर बताइये कि मेरे दुःख का कारण क्या है? जब उसने (बैल ने) ऐसी बात कही, तो राजा परीक्षित ने उसे पहचान लिया। बोले, मैं समझ गया तुम साक्षात धर्म हो। तभी तुमने किसी की चुगली नहीं की।
देखो, अपने दुःख के लिए किसी और को दोष देना भी अर्धम ही है। अतः किसी को दोष मत दो। धर्म के चार पैर-पाद बताए जाते हैं- तप, शौच-शुद्धता, दया और सत्य। इन चार पैरों के ऊपर धर्म चलता है। अर्थात तम माने इन्द्रियसंयम-इन्द्रियजय, मन की एकाग्रता, शौच माने मन की तथा बाहर की शुद्धता, दया माने प्राणिमात्र के प्रति कल्याण की भावना और सत्य, इन चारों का पालन जहाँ होता है वहीं पर धर्म की निष्ठा होती है। जहाँ ये चारों न हों वहाँ धर्म आदि कुछ नहीं होता। कोई कहे कि मैं बड़ा धार्मिक आदमी हूँ, परन्तु यदि किसी को मारने-काटने में उसको कोई संकोच नहीं होता हो, तो वह सच्चे अर्थ में धार्मिक नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.17.22
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