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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
18.यमलार्जुन का उद्धार
जब भगवान ने सुना कि कोई फलवाली कह रही है, “फल लीजिए, ताजे-ताजे फली लीजिए”, तो ये दौड़ कर बाहर आये। छोटे-से हैं, दौड़ते हुए आते हैं अपनी अँजुली में अनाज ले कर। अनाज तो सारा मार्ग में ही बिखर गया था। वे अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा देते हैं। फलवाली इनके छोटे-छोटे हाथों को फलों से भर देती है, फिर भगवान उसकी टोकरी रत्नों से भर देते हैं लेकिन उसे पता नहीं चलता। घर जाकर वह देखती है कि उसकी टोकरी में रत्न भरे हुए हैं। इस प्रकार गोकुल में भगवान बड़े हो रहे हैं। घटनाक्रम को देखते हुए व्रज के नन्दादि बड़े-बड़े गोप सोच में पड़ गए। उनका विचार था कि अब हमें कुछ करना चाहिए। उपनन्द नाम के एक गोप ने कहा कि गोकुल में आजकल उत्पात बहुत हो रहे हैं, इसलिए हमको गोकुल छोड़ देना चाहिए। पास ही में एक अच्छी जगह है, चलकर अब वहीं रहना चाहिये। कौन-सी जगह है? पास में वृन्दावन नाम की एक जगह है। वृन्दावन बहुत अच्छी जगह है। अपने बाल-बच्चों को और सगे सम्बन्धियों को लेकर अब हम वृन्दावन चले चलते हैं, इस जगह को छोड़कर। लगता है यह जगह अशुभ है। गोकुल के सभी लोगों को यह बात बहुत पसन्द आयी। बस! जल्दी-जल्दी सबने अपनी बैलगाड़ियाँ-छकड़े सब तैयार किये, सामान लादा और चल पड़े। उन सब को अब वृन्दावन जाकर वहीं रहना है।
वे सब वृन्दावन में आकर बस गए। वृन्दावन की बड़ी शोभा थी, गोवर्धन पर्वत भी मन को प्रसन्न करते थे और यमुना जी के पुलिन भी मनभावन थे। सब देखकर बलराम तथा श्रीकृष्ण का मन प्रेम से भर गया। अपनी बाल लीलाओं से उन्होंने गोकुल की तरह यहाँ भी सबका मन मोह लिया। समय आने पर वे वत्सपाल बन कर अन्य ग्वालबालकों के साथ बछड़ों केा लेकर जाते। बछड़े भी चरा लाते और साथ-साथ सभी मिलकर तरह-तरह के खेल भी खेलते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.11.36
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