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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.आदर्श की परिसीमा - भगवान श्री राम
लेकिन रामजी या सीताजी अपना दुःख किसे सुनाते? इसीलिए कहते हैं, बड़े लोगों का दुःख ऐसा होता है कि वे किसी से कह भी नहीं सकते। अन्दर-ही-अन्दर व्याकुल होते रहते हैं। नीलकण्ठ भगवान के समान उन्हें बहुत सहना पड़ता है। तो एक ओर धर्म का पालन करने वालों को इस प्रकार का कष्ट होता है और दूसरी ओर अधर्माचरण करने वालों को, दिन-रात कलह करने वालों को, जो अनेक प्रकार की वासनाओं में लिप्त हो जाते हैं, उनको दूसरे प्रकार का कष्ट होता है।
सीता जी के परित्याग के बाद अखण्ड ब्रह्मचर्य धारण करके भगवान राज्य करते रहे। देखो अयोध्यावासियों द्वारा इस प्रकार के दुर्व्यवहार के बाद भी अन्त में भगवान सब लोगों को साकेत ले जाते हैं। क्या वे इसके अधिकारी थे? लेकिन उन्हें ले जाने वाले स्वयं भगवान थे, तो हम कौन होते हैं प्रश्न पूछने वाले?
जो व्यक्ति भगवान श्री रामचन्द्र जी के ऐसे जीवन का श्रवण, मनन, ध्यान, चिन्तन व स्मरण करता रहता है, उसे आचरण में लाता है, वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। संक्षेप में यह श्री रामचरित्र है। इसका विस्तार जितना भी करें वह थोड़ा ही हैं। क्योंकि पूरा विस्तार तो कोई कर ही नहीं सकता है। लेकिन उनके जीवन की मुख्य बात को समझ लेना चाहिए। उपशिक्षितात्मने, उपासितलोकाय, साधुवादनिकषणाय आदि जो उनके विशेषण हैं उन्हें ध्यान में रखना चाहिए। जब कभी अभिमान होने लगे कि हम बड़े साधु आदमी हैं, तो रामजी के जीवन के साथ तौल कर देख लेना चाहिए कि हम उनके आसपास कहीं हैं कि नहीं? मन के ऊपर संयम है या नहीं? रावण ने सबको जीत लिया था, बस अपने मन को ही नहीं जीता था। वह लोगों से अपनी उपासना करवाता रहा, परन्तु लोगों की उपासना नहीं की। यही रावण में और राम जी में अन्तर है। आगे लव-कुश राजा बनते हैं और उसके बाद इक्ष्वाकुवंश का थोड़ा और वर्णन आता है। आगे निमि वंश का वर्णन आता है। और उसके बाद सोमवंश-चन्द्रवंश का वर्णन प्रारम्भ होता है। इसमें राजा पुरुरवा की, परशुराम जी की और उसके बाद राजा नहुष के पुत्र राजा ययाति की कथा आती है। राजा ययाति का विवाह शुक्राचार्य जी की पुत्री देवयानी के साथ हुआ। उसकी दासी बनकर आई थी शर्मिष्ठा, जो राजकन्या थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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