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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.ध्रुव को नारद जी का उपदेश
बेटा तुम्हारी माँ ने तुमको जो उपदेश दिया है वह बड़ा अच्छा उपदेश है। अब तुम इसी मार्ग पर चलो। यही निःश्रेयस का मार्ग है। यहाँ से तुम मधुवन में जाओ, यमुना जी के किनारे वहाँ पर रोज सुबह यमुना जी में स्नान करना। उसके बाद स्थिर होकर आसन में बैठ जाना, और फिर प्राणायाम के द्वारा अपने श्वास को संयमित कर लेना। सर्व संग का त्याग कर इन्द्रियों को वश में कर लेना। और फिर भगवान के अत्यंत मनोहारी रूप का ध्यान करना। नारद मुनि स्वयं उसे भगवान विष्णु के रूप का वर्णन करके बताते हैं कि किस प्रकार उनके रूप का ध्यान करना है। शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान विष्णु हैं, गले में वनमाला है, कौस्तुभमणि है, मकर कुण्डल हैं, पीताम्बर धारण किये हुए हैं और मंद-मंद मुस्कान उनके मुख पर सदा छाई रहती है। इस प्रकार नारद जी ने भगवान के रूप का वर्णन किया और कहा - ‘ऊँ नमों भगवते वासुदेवाय’ इस मन्त्र का तुम निरन्तर जप करते रहना। कंद-मूल आदि का संयमित आहार करते हुए अपने चित्त को शान्त और मननशील बना लेना। अब तुम वन में जाकर अपनी तपस्या में लग जाओ। अब हम लोग भक्त ध्रुव को यहीं मधुवन में छोड़ते हैं। और उधर राजा उत्तानपाद के पास चलते हैं। ध्रुव के वन में चले जाने से राजा उत्तानपाद को बहुत दुःख हुआ। अपने आप को कोसने लगे।
ध्रुव जी को मधुवन भेजकर नारद जी उत्तानपाद के पास पहुँचे। उन्होंने राजा से कहा कि तम किस सोच में पड़े हुए हो, तुम्हारा मुख क्यों सूख रहा है? तो राजा उत्तानपाद कहते हैं - नारद जी मैं कैसा मूढ़ हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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