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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
3.कर्तव्य का स्वरूप व प्रयोजन
अच्छा अब एक और बात है। हम सब धर्म का अर्थात कर्तव्य का बड़ा पालन करते रहते हैं, लेकिन इस कर्तव्यपालन का फल क्या है इसके बारे में कभी सोचा है? हम लोगों का कुछ इस प्रकार का विचार रहता है कि हम जो-जो कर्तव्यपालन करते हैं उससे हमको पैसा मिलना चाहिए, जगत में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए, नाम-कीर्ति मिलनी चाहिये, प्रमोशन मिलना चाहिए इत्यादि और यदि नही मिलता है तो हम कहते हैं, ‘‘मैं इतना काम करता रहता हूँ लेकिन मुझे कुछ नहीं मिला। दूसरा आदमी काम नहीं करता, फिर भी उसको प्रमोशन मिलता है, उसका स्थानान्तरण (ट्रान्सफर) नहीं होता है। उसको जो कुछ चाहिए वह मिलता रहता है। मुझे तो कुछ मिलता ही नहीं।
जो धर्मपालन हमारे मन में भगवान के लिए, उनकी कथा के लिए प्रेम उत्पन्न नहीं करता है वह धर्मपालन केवल परिश्रम है। यह ध्यान में रखने की बात है। देखो, कर्तव्यपालन सही रूप से हुआ हो तो उससे हमें आनन्द का अनुभव होना चाहिए। ऐसा नहीं लगना चाहिए कि मैं इतना सिर खपाता रहता हूँ, इससे मुझे क्या लाभ हुआ? जिसके लिए हम कर्तव्यपालन करते हैं उसके लिए हमारे मन में प्रेम उत्पन्न होता रहना चाहिये। और यदि प्रेम का वर्धन और आनन्द का अनुभव नहीं हुआ तो वह कर्म व्यर्थ है। जैसे एक व्यक्ति ऑफिस में काम करने के लिए जाता है और दूसरा अपने शौक का कार्य या मन पसंद काम करने के लिए जाता है, ये दोनों प्रकार के कर्म, कर्म तो हैं, लेकिन दोनों में कितना अन्तर होता है। अपने मन का कार्य कोई कितने ही घंटो तक करता रहे तो भी उससे उसको थकावट या ऊब नहीं होती, वरन् आनन्द का अनुभव होता है। उससे नया-नया प्रेम बढ़ता जाता है। लेकिन दूसरा जो काम है उसे कैसे करते हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.2.8
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