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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
26.शुद्ध ज्ञान तथा भक्ति का निरूपण
आगे भगवान यम-नियम आदि भक्ति के साधनों का वर्णन करते हैं। इसमें एक बात वे पहले ही कह देते हैं कि भक्त अनेक प्रकार के होते हैं, परन्तु जो ज्ञानी भक्त हैं वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं। ऐसे भक्त के ज्ञान का स्वरूप क्या है?
वह ज्ञान गुरु मुख से वेद-शास्त्र का श्रवण कर, आत्मानुभव द्वारा प्राप्त होता है। वह कोई आनुमानिक या केवल तर्क से प्राप्त बौद्धिक ज्ञान नही होता। बुद्धि से प्राप्त ज्ञान जब तक अनुभव सिद्ध नहीं होता, तब तक उसमें पूर्ण असंदिग्धता नहीं आती, और ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं होता। ज्ञान वही है जो श्रुति-युक्ति-अनुभूति सिद्ध हो। भगवान कहते हैं - ‘मायामात्रमिदं ज्ञात्वा’ सब कुछ माया का खेल है, जैसा दिखाई देता है वैसा नहीं है, ऐसा जानकर इस ज्ञान का भी मुझमें संन्यास कर देना चाहिए अर्थात इस ज्ञान का अभिमान नहीं करना चाहिए। भगवतस्वरूप बनना चाहिए। यहाँ भगवान ने एक बहुत बड़ी बात कही है। कहते हैं -
ज्ञानी को मेरे अतिरिक्त और कोई वस्तु प्रिय नहीं है, वह और कोई वस्तु को नहीं चाहता। एक मैं ही उसका इष्ट हूँ। वह मुझसे अत्यधिक प्रेम करता है और इसी कारण वह सबसे (क्योंकि सबके हृदय में मैं ही निवास करता हूँ) प्रेम करता है। इसलिए मुझे वह अति प्रिय है। ज्ञान का सर्वत्र प्रसार करके वह ज्ञान द्वारा मेरा पोषण करता है। उद्धव तुम इस बात को भली प्रकार जान लो कि जगत का आदि-मध्य-अन्त सब मैं ही हूँ। आगे उद्धव जी भगवान से कहते हैं - आपने समझाकर बताया कि शुद्ध ज्ञान क्या होता है। यह भी समझाइये कि शुद्ध भक्ति क्या होती है। भगवान कहते हैं - ‘भक्तियोगः पुरा एव उक्तः’ भक्तियोग तो मैंने पहले ही तुमको बता दिया है। परन्तु मेरे वचन सुनकर तुम प्रसन्न होते हो इसलिए पुनः सुनाता हूँ। भक्ति का प्रारंभ ‘श्रद्धा’ से होता है। हम पहले देख चुके हैं कि सर्वप्रथम तो मनुष्य को महापुरुषों की सेवा करनी चाहिए। इसी के फलस्वरूप भगवत्कथा श्रवण का अवसर मिलता है। कथा सुनने से मन में श्रद्धा उत्पन्न होने लगती है। श्रद्धा होने पर भगवत्कथा में रति उत्पन्न होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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